Mohan Chandra Pargai’s column – Forests are continuously losing out in the struggle against the increasing pace of development | मोहन चंद्र परगाई का कॉलम: विकास की बढ़ती गति से संघर्ष में जंगल लगातार हारते जा रहे हैं

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9 घंटे पहले
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मोहन चंद्र परगाई पूर्व भारतीय वन सेवा अधिकारी
आज भारत जलवायु परिवर्तन सहित बढ़ती पर्यावरणीय चुनौतियों से ग्रस्त है। इसके फलस्वरूप यहां पर्यावरणीय जागरूकता भी बढ़ रही है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रैमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) और बॉन चुनौती के तहत अपना फॉरेस्ट-कवर बढ़ाने और 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को पुनर्स्थापित करने का संकल्प लिया है।
भारतीय वन सर्वेक्षण रिपोर्ट (आईएसएफआर) 2023 के अनुसार, भारत के कुल वन और फॉरेस्ट-कवर 2021 की तुलना में 1,445 वर्ग किमी बढ़ा है। इसमें वन-आवरण (फॉरेस्ट-कवर) की 156 वर्ग किमी की वृद्धि में से 149 वर्ग किमी की वृद्धि अभिलिखित वन क्षेत्रों के बाहर हुई है।
दूसरी ओर वृक्ष आवरण (ट्री-कवर) में 1,289 वर्ग किमी की वृद्धि हुई, जो कुल वृद्धि का 89% है। वन बाह्य वृक्ष (टीओएफ) अधिसूचित वन क्षेत्र के बाहर के पेड़ हैं, जिनमें छोटे वन, मानव द्वारा वृक्षारोपण, सड़कों, पार्कों, घरों और कृषि भूमि पर स्थित पेड़ शामिल हैं। ये निजी, सामुदायिक या सरकारी भूमि पर हो सकते हैं। वृक्ष आवरण, वन बाह्य वृक्ष का हिस्सा होने के नाते वन आवरण में सुधार लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
मौजूदा रिपोर्ट जहां एक ओर वन बाह्य वृक्षों की बढ़त का शुभ संकेत देती है, वहीं दूसरी ओर वन आवरण और मुख्यतः अभिलिखित वन क्षेत्रों के भीतर मात्र 7 वर्ग किमी की अल्प वृद्धि को ही दर्शाती है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त केंद्रीय सशक्त समिति (सीईसी) की रिपोर्ट ने भारत में 2019-20 से 2023-24 के बीच 1,78,261 हेक्टेयर पूर्तिकर वनीकरण (कपेंसेटरी अफॉरेस्टेशन) की पुष्टि की है।
इन आंकड़ों को अगर हम 50% सर्वाइवल (उत्तरजीविता) लेकर भी वन क्षेत्र की बढ़ोतरी से जोड़ें तो इनके द्वारा कम से कम 800 वर्ग किमी के वन आवरण की वृद्धि होनी चाहिए, जो कि नहीं है और यही बड़ी चिंता का विषय है।
विगत दो वर्षों में निर्मित इस परिस्थिति के पीछे की दशा और अवस्थाओं का अध्ययन करने पर बहुआयामी चुनौतियां और समस्याएं मुंह बाए खड़ी दिखती हैं और मौजूदा वनों पर अनवरत पड़ने वाले दबाव और जमीनी समस्याएं वनीकरण के सारे प्रयासों पर पानी फेर रही हैं।
इसके साथ-साथ बढ़ती गरीबी, जनसंख्या का दबाव, राजनीतिक समझौतों और वैज्ञानिक प्रबंधन की कमी इन चुनौतियों को और भी जटिल बना रही है, जिनके कारण वन क्षेत्रों का वांछनीय विकास और वृद्धि प्रभावित हुई है।
भारत के वनों की चुनौतियां गंभीर और बहुआयामी हैं। विकास की योजनाओं और कृषि विस्तार के लिए वनों की कटाई और अतिक्रमण से वन क्षेत्र निरंतर घट रहे हैं। वर्ष 2003-2023 के बीच 24,651 वर्ग किमी से अधिक वन क्षेत्र के नाश में 17,500 वर्ग किमी वन क्षेत्र का नाश तो 2013-2023 के दशक में हुआ। इसमें अतिक्रमण और कटाई की बड़ी भूमिका रही।
वहीं पिछले डेढ़ दशक में 3 लाख हेक्टेयर से अधिक वन भूमि का उपयोग गैर-वन कार्यों के लिए किया गया है। लगभग 25 करोड़ लोगों की प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से वनों पर आजीविका के लिए निर्भरता से और 75% वनों पर चराई का प्रभाव पड़ा है। इससे उनका पुनर्स्थापन भी मुश्किल होता जा रहा है।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ते तापमान, अनियमित वर्षा और लंबे शुष्क मौसम ने 2023-24 में लगभग 34,562 वर्ग किमी वन क्षेत्र को आगजनी से नुकसान पहुंचा है। वन-रोपण के लिए धन की कमी सभी राज्यों में एक बड़ी समस्या रही है, और जिन राज्यों के पास पैसा है भी, वह उसके कम उपयोग या दुरुपयोग जैसी चुनौतियों से जूझ रहे हैं।
स्थानीय स्तर पर इनकी निगरानी भी प्रभावशाली नहीं पाई गई है। अतिक्रमण और इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास की गतिविधियां वन्य जीवों- विशेषकर हाथी एवं बाघ के कॉरिडोर- को संकुचित करते हुए उनकी संख्या को प्रभावित कर रही है और मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाओं को बढ़ा रही है।
जंगलों के संरक्षण और विकास में आदिवासी और ग्राम समुदायों की भूमिका को वन अधिकार अधिनियम 2006 और संयुक्त वन प्रबंधन के माध्यम से बढ़ावा तो मिला है, परंतु प्रशासनिक चुनौतियों और अधिकारों की अनदेखी के कारण स्थानीय सहभागिता सीमित है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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