Rajdeep Sardesai’s column – We cannot become leaders of the region without improving our neighbourhood | राजदीप सरदेसाई का कालम: अपना पड़ोस सुधारे बिना हम क्षेत्र के लीडर नहीं हो सकते

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4 घंटे पहले
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राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार
2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा विदेश नीति की दिशा में उठाया अपना पहला ही कदम एक कूटनीतिक और रणनीतिक मास्टरस्ट्रोक था। यह था दक्षिण एशियाई नेताओं को अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुलाना। इसने संकेत दिया था कि भारत क्षेत्रीय एकजुटता के केंद्र के तौर पर काम करना चाहता है। लेकिन आज, 11 साल बाद सार्क के पुनरुद्धार की उम्मीदें धूमिल हो चुकी हैं। आंतरिक राजनीति, राष्ट्रवादी उन्माद, आर्थिक संकट, आपसी वैमनस्य के दृश्य उभर आए हैं। ‘नेबरहुड फर्स्ट’ का नारा तार-तार हो गया है।
नेपाल के हिंसक प्रदर्शनों का ताजा उदाहरण ही लें। 2015 में नया संविधान लागू होने से अब तक नेपाल में नौ सरकारें बन चुकी हैं। दसवीं अंतरिम सरकार सुशीला कार्की के नेतृत्व में बनी है। गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और कुप्रशासन के चलते नेपाल का जनाक्रोश ज्वालामुखी जैसा बन गया और फूट पड़ा।
भूटान के बाद नेपाल ही वो दूसरा देश था- जहां प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी ने दौरा किया था। पशुपतिनाथ मंदिर में प्रधानमंत्री की पूजा-अर्चना की तस्वीरें वायरल हुईं। इसे दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक रिश्तों को फिर से खोजने की चाहत रखने वाले हिंदुत्व-केंद्रित नेतृत्व के तौर पर देखा गया। लेकिन यथार्थ के सामने यह नहीं टिक पाया।
2015-16 में भारत-नेपाल सीमा पर पांच महीने तक हुई अनौपचारिक नाकेबंदी को नेपाल के कई लोगों ने भारत द्वारा नेपाल पर अपनी शर्तें थोपने की कोशिश बताया था। इससे संबंधों में इतनी खटास आ गई कि नेपाल ने सीमा पार तक के क्षेत्र पर दावेदारी जताने की हिमाकत कर दी। ये बताता है कि नेपाल के राजनेता समय-समय पर आपसी सहमति बनाने के लिए भारत-विरोधी राजनीति को हवा देते रहे हैं।
नेपाल की जेन-जी क्रांति बांग्लादेश जैसी ही है। नेपाल में सोशल मीडिया प्रतिबंधों ने युवाओं को उकसाया तो बांग्लादेश में छात्र कोटा नीति से नाराज थे। नेपाल की तरह बांग्लादेश में भी भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ पनपा असंतोष कुलीन-विरोधी और व्यवस्था-विरोधी आंदोलन में बदल गया था।
उस समय भी सरकार हैरान थी, क्योंकि उसने हसीना की हुकूमत में खासी राजनीतिक पूंजी का निवेश किया था। बांग्लादेश में कट्टरपंथी ताकतों का उदय हुआ, जो भारत-विरोधी और हिंदू-विरोधी थीं। लेकिन जिस सरकार पर उसके आलोचक हिंदू बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाते रहे हों, वो भला कैसे बांग्लादेश से यह कहती कि वहां ‘धर्मनिरपेक्ष’ मूल्य बहाल हों और अल्पसंख्यकों की रक्षा की जाए।
श्रीलंका हमारा एक और ऐसा पड़ोसी देश है, जिसने हाल के समय में भारी उलथपुथल देखी है। यहां भी महंगाई, ईंधन की किल्लत और गहराते आर्थिक संकट के कारण भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को बेदखल कर दिया गया। राजपक्षे भाइयों को रातोंरात देश से बाहर खदेड़ दिया गया। राष्ट्रपति भवन पर प्रदर्शनकारियों के कब्जे की तस्वीरें इस बात का प्रतीक थीं कि शक्तिशाली सत्ता भी जन-आंदोलन के सामने नहीं टिक सकती।
हालांकि, भारत उपरोक्त देशों की समस्याओं के लिए सीधे जिम्मेदार नहीं है, लेकिन मालदीव जैसे छोटे देश के साथ 2024 में हुआ कूटनीतिक टकराव जरूर टाला जा सकता था। तब सत्तारूढ़ पार्टी की धुर-राष्ट्रवादी सोशल मीडिया सेना ने मोहम्मद मुइज्जू के नेतृत्व वाली मालदीव सरकार पर हथियार तान दिए थे। इसने मालदीव को ‘इंडिया आउट, चाइना इन’ की नीति अपनाने के लिए मजबूर किया।
ये सच है कि मुइज्जू की भारत-विरोधी बयानबाजी गैर-जरूरी थी, लेकिन पर्यटन स्थल के रूप में मालदीव के बहिष्कार का आह्वान इस बात का चिंताजनक प्रमाण था कि सोशल मीडिया के जरिए विदेश नीति का राजनीतिकरण कैसे किया जाता है। ऐसे में प्रधानमंत्री का हालिया मालदीव दौरा स्वागतयोग्य कदम था। इसमें सीख यह है कि हमें जरूरत से अधिक प्रतिक्रिया से बचना चाहिए।
तब हमारे चिर-शत्रु पाकिस्तान की बात ही क्या करें? बेशक, पाकिस्तान की सीमा पार आतंकवाद को पोषित करने की नीति क्षेत्रीय एकता को बिगाड़ने का मुख्य कारण रही है। लेकिन पाकिस्तान का छल-कपट इस बात पर परदा नहीं डाल सकता कि भारत साझा हितों पर आधारित पुख्ता दक्षिण एशिया नीति बनाने और क्षेत्र में बेहतर प्रभाव डालने में विफल रहा है।
‘ग्लोबल साउथ’ का अगुआ बनने और दुनिया में आवाज बुलंद करने की महत्वाकांक्षा रखने वाले देश के लिए पड़ोस में लगातार होने वाली इस तरह की उथल-पुथल एक वास्तविक चुनौती है। वास्तव में, हमें पश्चिमी देशों के बजाय अपने पड़ोस में हो रही चीजों पर अधिक ध्यान देना होगा।
‘ग्लोबल साउथ’ का अगुआ बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले किसी देश के लिए पड़ोस में लगातार होने वाली उथल-पुथल एक वास्तविक चुनौती है। हमें पश्चिमी देशों के बजाय अपने पड़ोस में हो रही चीजों पर अधिक ध्यान देना होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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