Thursday 20/ 11/ 2025 

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Navneet Gurjar’s column – The story of jumping into a pond in Bihar | नवनीत गुर्जर का कॉलम: बिहार के तालाब में कूदने की कहानी

6 घंटे पहले

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नवनीत गुर्जर - Dainik Bhaskar

नवनीत गुर्जर

किसने अपनी बांह चढ़ाकर वक्त को रोका था? कौन लम्बी दौड़ लगाकर समय से आगे निकल पाया? कोई नहीं। कोई नहीं। बिहार में सोच से आगे सीटें आ गईं। क्यों? सोच का अपना गणित है और सीटों का अपना। शुरुआत में मैथिली ठाकुर का स्थानीय भाजपा में भारी विरोध था।

उसे थामना हो या पंकज सिंह को जैसे-तैसे भाजपा के पक्ष में लाना हो, या सुशासन दिखाने के लिए चुनाव के ऐन पहले बाहुबली अनंत सिंह को जेल में डालना हो! इन सब कूटनीतिक कदमों को बाजू में रख दें, तब भी ये तो हर किसी को मानना ही होगा कि चुनाव में- चाहे वो किसी भी स्तर का हो- भाजपा जैसी और जितनी मेहनत करती है, और कोई राजनीतिक पार्टी नहीं कर पाती।

गुजरात- जो भाजपा के लिए तुलनात्मक रूप से आसान है- वहां और बिहार जो उसके लिए कठिन कहा जा सकता है- वहां भी वह एक जैसी मेहनत करती है। उसके कार्यकर्ता, संघ के स्वयंसेवकों के साथ लगकर जो घर-घर जाने का काम कर पाते हैं, कोई और नहीं कर पाता।

हो सकता है लंबे समय से सत्ता में रहने के कारण उसके पास कार्यकर्ताओं की भरमार हो, उत्साह भी ज्यादा हो और उसके विरोधियों के पास इन दोनों चीजों के लाले पड़े हों, इसलिए ऐसा संभव होता हो! कारण जो भी हो, लेकिन मेहनत में कोई कमी कभी नहीं देखी जाती। परिणाम चाहे जो हो।

अब सवाल यह उठता है कि बिहार जहां खुद भाजपा की उम्मीद का नंबर 160 (एनडीए) था, वहां 202 का आंकड़ा कैसे पा लिया गया? दरअसल, सुशासन बाबू यानी नीतीश कुमार का चेहरा, उस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तड़का और जीविका दीदी- ये तीनों कारण तो हैं ही, सबसे मजबूत मामला था जंगलराज का।

जंगलराज के बारे में हम-आप कह सकते हैं कि वो 20-25 साल पुरानी बात हो गई और अब के युवाओं को वो सब कैसे याद होगा? लेकिन बिहार की गलियों में घूमिए तो यह सब बच्चे-बच्चे को याद है। यकीनन ये युवा जो पहली या दूसरी बार के वोटर हैं, वे तब पैदा भी नहीं हुए होंगे, लेकिन उनके दादा-परदादा, माता-पिता ने तो कहानियां सुनाई ही हैं।

कैसे चलती मोटरसाइकल से चाबी निकालकर कह दिया जाता था कि अब जाइए घर। लोग जान बची तो लाखों पाए, समझकर अपने घर चल देते थे। महिलाओं का तो पटना जैसे शहर में भी शाम के बाद निकलना दूभर था।

यही वजह थी कि इस चुनाव में भाजपा और जदयू ने सबसे ज्यादा जंगलराज पर ही जोर दिया। विपक्ष इसे समझ नहीं पाया। वह एसआईआर में ही उलझा रहा। नीतीश बाबू के खिलाफ कहने के लिए उसके पास कुछ था नहीं। राहुल गांधी एसआईआर के मुद्दे को हवा देकर अचानक गायब हो गए।

तब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका था। बहुत बाद जब वे आए तो आते ही उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री पर बारम्बार वार किए। यह भी लोगों को ठीक नहीं लगा। आज भी जब विपक्ष मोदी का विरोध करता है तो यह बात विपक्ष के खिलाफ ही जाती है।

दूसरी तरफ विपक्ष में समन्वय की कमी हर कदम पर दिखी। खुद कांग्रेस के भीतर मनमुटाव चल रहा था। कुछ कांग्रेसी कमजोर लोगों को टिकट देने का मुद्दा उठा रहे थे तो कुछ अपने ही संगठन या संगठन के लोगों पर टिकट बेचने का आरोप लगा रहे थे। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने मुश्किल से कुछ सभाएं ही साथ की होंगी। वे जहां-तहां अकेले ही भागते दिखे।

बाद-बाद में तो तेजस्वी यादव ज्यादा से ज्यादा सभाएं करने का रिकॉर्ड बनाने पर तुल गए थे। उन्होंने एक-एक दिन में 16-16 सभाएं कीं। कहीं दो मिनट रुके। कहीं अढ़ाई मिनट। हाथ हिलाया। चुनाव चिन्ह दिखाया और आगे बढ़ गए।

लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में बहुत हद तक विफल रहे। यही वजह है कि एमवाय का उनका फॉर्मूला बुरी तरह फेल हो गया। एनडीए ने मुस्लिम/यादव के इस गठजोड़ को महिला/युवा में बदल दिया, जो कामयाब भी साबित हुआ।

बिहार में कोई पचास सीटें मुस्लिम बहुल और करीब साठ सीटें यादव बहुल हैं, ये भी राजद या महागठबंधन को नसीब नहीं हो पाईं। महागठबंधन के तमाम साथी मिलकर भी 35 से आगे नहीं बढ़ सके। उनके कुछ साथी तो जीरो को गले लगाए नजर आए। ये वही थे जो राहुल के साथ पोखर (तालाब) में कूद पड़े थे। जनता ने उन्हें पोखर (तालाब) में ही रहने दिया। जमीन पर आने ही नहीं दिया!

हर कदम पर नजर आ रही थी समन्वय की कमी… विपक्ष में समन्वय की कमी हर कदम पर दिखी। कांग्रेस में मनमुटाव चल रहा था। कुछ कांग्रेसी कमजोर लोगों को टिकट देने का मुद्दा उठा रहे थे तो कुछ अपने ही संगठन या संगठन के लोगों पर टिकट बेचने का आरोप लगा रहे थे।

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