महाभारत कथाः तक्षक नाग की प्राण रक्षा, सर्पों का बचाव… बाल मुनि आस्तीक ने राजा जनमेजय से कैसे रुकवाया नागयज्ञ


महात्मा गांधी का एक कथन बहुत प्रसिद्ध रहा है. वह कहते थे ‘आंख के बदले आंख का सिद्धांत एक दिन सारी दुनिया को अंधा कर देगा’. इस कथन के जरिए वह यह बताने की कोशिश करते थे कि हिंसा तो वैसे भी सबसे निचले स्तर की मानसिकता है, लेकिन प्रतिहिंसा, (हिंसा के जवाब में की गई हिंसा) और भी बुरी है. महात्मा गांधी का यह कथन महाभारत का ही संदेश है. जहां बार-बार बताने की कोशिश की गई है कि अहिंसा परम धर्म और क्षमाशीलता इस धर्म का आधार. माफी मांग लेना और माफ कर देना अगर मनुष्यता के बीच कायम रहे तो यह संसार सबसे सुंदर हो, लेकिन इसमें आड़े आ जाती है मनुष्य की दुर्भावना, उसका अहंकार और उसके भीतर पल रही बदले की भावना.
यह बदले की भावना ही थी, जिसके कारण हस्तिनापुर में भयंकर सर्प सत्र यज्ञ का आयोजन किया गया और सभी नाग उसमें एक-एक गिरने लगे. जिस तक्षक के कारण यह स्थिति आई थी, वह खुद तो जाकर इंद्रलोक में छिप गया था. इधर यज्ञ के ऋषि सर्पों और उनकी जाति का नाम लेकर मंत्र पढ़ते थे और फिर वह नाग यज्ञ वेदी में खिंचा चला आता था और बहुत चीख वाली ध्वनि के साथ यज्ञ की अग्नि में समा जाता था. उसके भस्म होते ही ऊपर तक उसका धुआं उठता और वातावरण में एक तीखी गंध भर जाती थी. एक के बाद एक नाग गिरते जा रहे थे और नागजाति पर लुप्त होने का संकट बढ़ता जा रहा था.
उग्रश्रवा ऋषि ने यह सारा वृत्तांत सुनाकर ऋषियों से आगे कहा- जनमेजय के यज्ञ में सर्पों का हवन होते रहने से बहुत से सर्प नष्ट हो गए. छोटे आकार के सर्पों के भस्म होने के बाद, बड़े और विशाल नागों की बारी आई. शंख, बहालक, कर्कोटक आदि नाग जाति के कितने ही नाग एक-एक करके यज्ञ में खिंचते जा रहे थे. नागराज वासुकि की बेचैनी बढ़ती जा रही थी, क्योंकि वह अपनी आंखों से अपने कुल का ऐसा विनाश होते देख रहे थे. उनकी मां का श्राप उनकी आंखों के सामने सत्य होता जा रहा था. धीरे-धीरे बहुत से सर्प और नाग भस्म हो गए और थोड़े से ही बचे, तब नागराज वासुकि अपनी बहन जरत्कारु के पास पहुंचे.

उन्होंने बहन से कहा- प्रिय बहन जरत्कारु! राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ में अब तक कई सर्प और नाग भस्म हो चुके हैं. अब मेरी भी बारी आ सकती है. नागजाति पर जो संकट है, वह पहले से तय था और उसके अनुसार ही यह दिन आया है, लेकिन यह भी तय है कि यह सर्प यज्ञ पूरा नहीं होगा. इसको रोकने का माध्यम तुम्हारा ही पुत्र बनने वाला है. तुम जानती भी हो कि मैंने इसी दिन के लिए तुम्हारा विवाह ऋषि जरत्कारु से कराया था. तुम अपने पुत्र को प्रेरित करो. मैं उसकी मेधा शक्ति को जानता हूं, उसने बचपने में ही बहुत थोड़े समय के बीच ही वेद-वेदांग का अध्ययन कर ज्ञान पा लिया है. च्यवन ऋषि से नीति और शास्त्र भी सीख चुका है, इसलिए तुम अपने पुत्र को हस्तिनापुर भेजो.
अपने भाई की बात को आदेश की तरह समझते हुए जरत्कारु ने अपने पुत्र को हस्तिनापुर जाने के लिए प्रेरित किया और ब्रह्मा की वाणी के विषय में भी बताया, जो उन्होंने पूर्वकाल में कही थी. तब जरत्कारु के पुत्र आस्तीक ने नागराज वासुकि को धीरज रखने के लिए कहा और बोले- मामा श्री, आप मन में शांति रखिए. मैं सत्य कहता हूं कि मैं अपनी शुद्ध वाणी से राजा जनमेजय को प्रसन्न कर लूंगा और उनसे यह यज्ञ बंद करवा दूंगा. आप मुझपर विश्वास करिए और मुझे हस्तिनापुर जाने की आज्ञा दीजिए.
ऐसा कहकर, बाल मुनि आस्तीक महाराज हस्तिनापुर पहुंच गए. जब वह यज्ञशाला में प्रवेश करने लगे, तब द्वारपालों ने उन्हें रोक दिया. ऐसा इसिलए क्योंकि जब यज्ञ की तैयारी चल रही थी, तब सूत ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि यह यज्ञ पूर्ण नहीं होगा और एक ब्राह्मण इसे रोकेगा. यह सुनकर राजा जनमेजय ने आदेश दिया था कि यज्ञ शुरू हो जाए तो उसके बाद किसी को भी बिना मेरी आज्ञा के यज्ञशाला में प्रवेश की अनुमति न हो.
तब आस्तीक महाराज वहीं द्वार पर खड़े होकर मधुर वाणी में यज्ञ की स्तुति करने लगे. बालपन में उनका स्वर इतना शुद्ध, उच्चारण बिल्कुल स्पष्ट और वाणी इतनी मीठी थी, जो सर्प यज्ञ के उस नकारात्मक माहौल में हृदय बदलने वाली बन गई. उनकी यज्ञ स्तुति से प्रभावित होकर राजा जनमेजय ने आस्तीक महाराज को यज्ञ मंडप में आने की अनुमति दे दी. आस्तीक मुनि की स्तुति से राजा, सभासद, ऋत्विज मुनि सभी बहुत प्रसन्न हुए. राजा ने कहा- यह बालक है, लेकिन इसकी प्रतिभा इसे अनुभवी वृद्ध बनाती है, मैं इसे वर देना चाहता हूं.
इस पर राजा के सभासदों ने कहा- आपका यह विचार बहुत उत्तम है. वैसे भी यह ब्राह्मण है इतना ही काफी है. ब्राह्मण बालक भी हो तो भी राजाओं के लिए सम्मानीय है और फिर यह विद्वान भी तब तो कहना ही क्या. राजा के मन में अगर ब्राह्मण को कुछ देने का विचार आया है, तो उन्हें देना ही चाहिए. ऐसे में अच्छा हो कि आप इस बालक को मुंहमांगी वस्तु दें. राजा जनमेजय ने कहा- ठीक है, आप लोग मेरा यह कर्म प्रयत्न करके जल्दी से जल्दी पूरा कराएं और तक्षक नाग भी आकर इस यज्ञ में आ गिरे, क्योंकि वही मेरा प्रधान शत्रु है.

तब ऋत्विज मुनियों ने बताया कि तक्षक इस यज्ञ की बात सुनकर इंद्रदेव की शरण में चला गया है और इसलिए उनके अभय वचन के कारण ही वह मंत्रों से प्रभावित नहीं हो रहा है. तब जनमेजय ने कहा कि आप लोग बार-बार शक्तिशाली मंत्र पढ़कर तक्षक को बुलाएं और इंद्र को भी साथ में बुला लें. तक्षक ने यह सुना तो वह इंद्र के चारों ओर जाकर लिपट गया और मंत्रों के प्रभाव में उनके साथ ही यज्ञ वेदी की ओर खिंचने लगा. ऋत्विजों ने देखा कि इंद्रदेव को जकड़े हुए तक्षक ऊपर आकाश में यज्ञवेदी के ऊपर आ गया है और अग्नि की ओर खिंच रहा है. इंद्र ऐसे भयानक यज्ञ को देखकर घबरा गए और इससे बचने का मार्ग खोजने लगे, लेकिन मंत्र के प्रभाव में असफल रहे, फिर वह तक्षक को छोड़कर चले गए. तब ब्राह्मणों ने कहा- राजन, आपके इच्छा के अनुसार अब तक्षक यज्ञ में भस्म ही होने वाला है. आपका मनोरथ पूर्ण होने वाला है, इसलिए अब आप इस बाल मुनि को उसका मन चाहा वर दे सकते हैं.
यह सुनकर जनमेजय बाल मुनि आस्तीक महाराज की ओर मुड़ा और उनसे बोला- हे बाल मुनि! मैं प्रसन्नता से आपको वर देना चाहता हूं, इसलिए आप जो इच्छा हो, वह प्रसन्नता से मांग लीजिए. मैं कठिन से कठिन वर भी आपको दूंगा. आस्तीक मुनि ने इस अवसर का लाभ उठाया और पहले तो हाथ उठाकर तक्षक को आकाश में ही स्थिर कर दिया, फिर बोले- राजन! आप मुझे यह वर दीजिए कि आपका यह यज्ञ इसी समय से बंद हो जाए और इसमें गिरने वाले सर्प-नाग अब बच जाएं. इस पर जनमेजय अप्रसन्न हुए और बोले कि- बाल मुनि, आप मुझसे धन, स्वर्ण, गौ, भूमि आदि कुछ और भी इच्छानुसार मांग लीजिए, लेकिन इस यज्ञ को बंद मत कराइए.
आस्तीक मुनि ने कहा- मैं ऐसा कुछ भी नहीं चाहता हूं. मैं बस इतना चाहता हूं कि मेरे द्वारा मेरे मातृ कुल (नाग कुल) का इतना कल्याण हो जाए. मैं उनके लिए ही आपका यह यज्ञ बंद कराना चाहता हूं. जनमेजय ने कई बार आस्तीक महाराज से उनकी मांग बदलने के लिए कहा- लेकिन बाल मुनि ने हर बार यही मांग दोहरायी. तब ब्राह्मणों, ऋत्विज मुनियों और वेद को जानने वाले विद्वान सदस्य भी एक स्वर में कहने लगे, इस बालक को वो मिलना चाहिए, जो यह मांग रहा है. क्योंकि राजा ने भी कठिन से कठिन वर देने का वचन दे दिया है.

उग्रश्रवा ऋषि ने शौनक जी को संबोधित करते हुए कहा- सभासदों के बार-बार कहने पर राजा जनमेजय को वही करना पड़ा जो बालमुनि कह रहे थे. राजा जनमेजय ने कहा- ‘अच्छा आस्तीक जी की इच्छा पूरी हो. यह यज्ञ अब समाप्त करो. आस्तीक जी प्रसन्न हों. हमारे सूत ने भी यज्ञ की शुरुआत में जो भविष्यवाणी की थी, वह भी सत्य हो. सब सत्य हो. सब मंगल हो.’
राजा जनमेजय के ऐसा कहते ही सभी बहुत प्रसन्न हुए और हर ओर मंगल छा गया. राजा ने ऋत्विज मुनियों, मंत्र होता ब्राह्मणों, विद्वान सदस्यों आदि सभी को बहुत दान दिया. राजा ने सूत का भी खूब सत्कार किया और आस्तीक मुनि का तो बहुत रीति से स्वागत करते हुए उनका सत्कार किया गया.
राजा ने उन्हें अन्य दान भी दिए और उनसे कहा- अब आप मेरे अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान में जरूर पधारिएगा. आस्तीक ने इस आमंत्रण पर प्रसन्नता जाहिर की और फिर घर पहुंचकर नाग यज्ञ के बंद होने का शुभ समाचार नागराज वासुकि और माता जरत्कारु को कह सुनाया. उस समय वासुकि नाग की सभा सर्प सत्र में बचे हुए नागों से भरी हुई थी. आस्तीक महाराज पर सभी सर्प अपना प्रेम और स्नेह लुटा रहे थे और अब सबने आस्तीक महाराज पर एक से एक वरदानों की झड़ी लगा दी. उन्होंने कहा- बेटा तुमने हमारा कल्याण किया है, इसलिए अब तुम भी हमसे वर मांगों. जो भी तुम्हारा प्रिय कार्य हो वह बताओ, हम जरूर करेंगे.

तब आस्तीक मुनि ने कहा- नागगण ! लोक में जो ब्राह्मण अथवा कोई दूसरा मनुष्य प्रसन्न मन से इस धर्ममय उपाख्यान का पाठ करे, उसे आप लोगों से कोई भय न हो. यह सुनकर सभी सर्प बहुत प्रसन्न हुए और अपने भांजे से बाले- ‘प्रिय वत्स ! तुम्हारी यह कामना पूर्ण हो. ‘जो कोई असित, आर्तिमान् और सुनीथ मंत्र का दिन अथवा रात के समय स्मरण करेगा, उसे सर्पों से कोई भय नहीं होगा. जो कोई इस मंत्र अथवा इसके भाव- जरत्कारु ॠषि से जरत्कारु नामक नागकन्या के जो आस्तीक नाम के यशस्वी ॠषि उत्पन्न हुए तथा जिन्होंने सर्पसत्र में सर्पों की रक्षा की थी, उनका में स्मरण कर रहा हूं. महाभाग्यवान् सर्पों ! तुम लोग मुझे मत डंसो. ‘महाबिषधर सर्प ! तुम चले जाओ. तुम्हारा कल्याण हो. अब तुम जाओ. जनमेजय के यज्ञ की समाप्ति में आस्तीक को तुमने जो वचन दिया था, उसका स्मरण करो. ‘जो सर्प आस्तीक के वचन की शपथ सुनकर भी नहीं लौटेगा, उसके फन के शीशम के फल के समान सैकड़ों टुकड़े हो जाएंगे’.
नागों ने यह वरदान आस्तीक महाराज को दिया और इस तरह धरती के प्राणियों को सर्पों के भय से मुक्त कर दिया.
उग्रश्रवाजी ने आगे कहा- बिप्रवर शौनक जी ! उस समय वहां आये हुए प्रधान-प्रधान नागराजाओं के इस प्रकार कहने पर महात्मा आस्तीक को बड़ी प्रसन्नता हुई. इस तरह सर्पसत्र से नागों का उद्धार करके द्विजश्रेष्ठ धर्मात्मा आस्तीक ने विवाह करके पुत्र-पौत्रादि उत्पन्न किये और समय आने पर मोक्ष प्राप्त कर लिया. इस प्रकार मैंने आपसे आस्तीक के उपख्यान का जैसा था वैसा वर्णन किया है. इसका पाठ कर लेने पर कहीं भी सर्पों से भय नहीं होता.
ब्राह्मण भृगुवंश-शिरोमणे ! आपके पूर्वज प्रमति ने अपने पुत्र रुरु के पूछने पर जिस प्रकार आस्तीककोपाख्यान कहा था और जिसे मैंने भी सुना था, उसी प्रकार विद्वान् महात्मा आस्तीक के मंगलमय चरित्र का मैंने शुरू से ही वर्णन किया है. आस्तीक का यह धर्ममय उपाख्यान पुण्य की वृद्धि करने वाला है. काम-क्रोधादि शत्रुओं का दमन करने वाले ब्राह्मण! इस तरह जनमेजय के सर्पसत्र यज्ञ का अंत हुआ और जनमेजय का भी नाम लेने पर लोगों को सर्पों से भय नहीं रहेगा, ऐसा विधान बना दिया गया. हिंसा और प्रतिहिंसा पर क्षमा ने विजय पाई. यही महाभारत की कथा का उद्देश्य है.
उग्रश्रवा ऋषि से राजा जनमेजय के नाग यज्ञ प्रसंग का इस तरह से अद्भुत वर्णन सुनकर समस्त ऋषियों समेत शौनक ऋषि बहुत प्रसन्न हुए. उन्होंने कहा- प्रिय सूतनन्दन! आपने बहुत विस्तार से हमें यह उपाख्यान सुनाया है, जिससे हमें बड़ी प्रसन्नता हुई. अब मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि भगवान् व्यास ने जो कथाऐं कही हैं, उनका भी वैसा ही वर्णन कीजिये, जैसा उन्होंने सुनाया है. लंबे समय तक चले इस सर्प सत्र यज्ञ में जब अवकाश होता था तो कौन-कौन सी कथाएं कही जाती थीं, उन्हें सुनाइए.

तब सूतनंदन उग्रश्रवा जी ने कहा- सर्पयज्ञ के दौरान वैसे तो वेदों-पुराणों की बहुत सी कथाएं कही गईं, लेकिन इसी बीच जब राजा जनमेजय बहुत शोक में थे, तब उनके शोक निवारण के लिए महर्षि वैशंपायन ने अपने गुरु भगवान वेदव्यास के आदेश पर उन्हें वह कथा सुनाई जो खुद उनके ही महान पूर्वजों की थी. वह बताते थे कि राजा जनमेजय के पूर्वज (अर्जुन) कैसे अपने जीवन काल में एक बार गहरे शोक में चले गए थे, तब खुद श्रीभगवान ने उनका शोक दूर किया था.
शौनकजी बोले- सूतनन्दन! महाभारत नामक इतिहास तो पाण्डवों के यश का विस्तार करने वाला है. मैं भी वही पुण्यमयी कथा विधि-विधान से सुनना चाहता हूं. यह कथा पवित्र मन वाले महर्षि वेदव्यास के हृदय रूपी समुद्र से प्रकट हुए सब प्रकार के शुभ विचार रूपी रत्नों से परिपूर्ण है. आप इस कथा को मुझे सुनाइये. उग्रश्रवाजी ने कहा- शौनक जी! मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ महाभारत की इस कथा को आपको सुनाने जा रहा हूं. मेरे द्वारा कही जाने वाली इस सम्पूर्ण महाभारत कथा को आप पूर्णरूप से सुनिये. यह कथा सुनाते समय मुझे भी महान् हर्ष होने वाला है.
इतना कहकर उग्रश्रवा जी ने कथा कहनी शुरू की. एक दिन हुआ ऐसा कि जिस समय राजा जनमेजय सर्प यज्ञ के लिए दीक्षित हो गए तब एक दिन भगवान वेद व्यास वहां पधारे. राजा जनमेजय ने उन्हें प्रणाम कर उनकी पूजा की, उन्हें ऊंचा आसन दिया और इस तरह वह उनके चरणों में बैठकर उनका कुशल-मंगल पूछा. भगवान् व्यास ने भी जनमेजय को अपना सब समाचार बताया और अन्य सभासदों द्वारा सम्मानित हो उनका भी सम्मान किया.

इसके बाद सब सदस्यों सहित राजा जनमेजय ने हाथ जोड़कर द्विजश्रेष्ठ व्यासजी से कहा- ब्रह्मन्! आप कौरवों और पाण्डवों को प्रत्यक्ष देख चुके हैं. अत: मैं आपके द्वारा वर्णित उनके चरित्र को सुनना चाहता हूं. वे तो रोग-द्वेष आदि दोषों से रहित सत्कर्म करने वाले थे, उनमें भेद-बुद्वि कैसे उत्पन्न हुई? इसके साथ ही यह भी बताइए कि प्राणियों का अंत करने वाला उनका वह महायुद्ध किस प्रकार हुआ? आप उनके इस वृत्तांत का यथावत् वर्णन करें. उग्रश्रवाजी ने कहा- जनमेजय की यह बात सुनकर श्रीकृष्णद्वैयापन व्यास ने पास ही बैठे अपने शिष्य वैशम्पायन को आदेश दिया कि वह राजा जनमेजय को उनकी लिखी महाभारत की कथा सुनाएं और उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए पांडव वंशी जनमेजय का शोक दूर करें. इसके बाद ही महाभारत में वह प्रकरण शुरू होता है, जिसे आज सारा संसार कौरव और पांडवों के महायुद्ध के तौर पर जानता है.
पहला भाग : कैसे लिखी गई महाभारत की महागाथा? महर्षि व्यास ने मानी शर्त, तब लिखने को तैयार हुए थे श्रीगणेश
दूसरा भाग : राजा जनमेजय और उनके भाइयों को क्यों मिला कुतिया से श्राप, कैसे सामने आई महाभारत की गाथा?
तीसरा भाग : राजा जनमेजय ने क्यों लिया नाग यज्ञ का फैसला, कैसे हुआ सर्पों का जन्म?
चौथा भाग : महाभारत कथाः नागों को क्यों उनकी मां ने ही दिया अग्नि में भस्म होने का श्राप, गरुड़ कैसे बन गए भगवान विष्णु के वाहन?
पांचवा भाग : कैसे हुई थी राजा परीक्षित की मृत्यु? क्या मिला था श्राप जिसके कारण हुआ भयानक नाग यज्ञ
छठा भाग : महाभारत कथाः नागों के रक्षक, सर्पों को यज्ञ से बचाने वाले बाल मुनि… कौन हैं ‘आस्तीक महाराज’, जिन्होंने रुकवाया था जनमेजय का नागयज्ञ
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