Sanjay Kumar’s column – The role of small parties is very important in Bihar elections | संजय कुमार का कॉलम: बिहार चुनाव में छोटे दलों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है

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5 घंटे पहले
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संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार
भले अभी तक यह कोई नहीं जानता कि बिहार में कितने दल विधानसभा चुनाव लड़ेंगे, लेकिन हम 2020 के मुकाबले इस बार मैदान में बहुत अधिक दलों को देखें तो इसमें अचम्भे की बात नहीं। 2020 में 211 दलों ने हिस्सा लिया था। इस बार प्रशांत किशोर की चर्चित जन स्वराज पार्टी के अलावा तेज प्रताप यादव की जनशक्ति जनता दल, आईपी गुप्ता की इंडियन इंक्लूसिव पार्टी और पूर्व आईपीएस अधिकारी शिवदीप लांडे की हिन्द सेना पार्टी जैसे नवगठित दल भी चुनाव में उतर सकते हैं।
बिहार चुनाव में राजनीतिक दलों की संख्या बढ़ने के दो कारण हैं। पहला कारण तो साफ है। पार्टी टिकट पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार की जीत की संभावना निर्दलीय प्रत्याशी से कहीं अधिक होती है। अंतत:, उम्मीदवार जीतने के लिए ही चुनाव लड़ते हैं और यही कारण है कि वे पार्टी टिकट पाने के लिए जी तोड़ मेहनत करते हैं।
दूसरा कारण इतना सहज नहीं। भले कोई बिहार चुनाव को द्विध्रुवीय मान रहा हो, लेकिन असल में यह दो राजनीतिक दलों के बीच नहीं, बल्कि दो गठबंधनों के बीच द्विध्रुवीय मुकाबला है। और हम जानते हैं कि गठबंधनों में छोटे क्षेत्रीय दलों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
उम्मीदवारों की बड़ी ख्वाहिश होती है कि वे किसी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ें, क्योंकि निर्दलीय प्रत्याशी की जीत की संभावना सिर्फ बिहार ही नहीं, दूसरे राज्यों में भी बहुत कम होती है। 1977 से अब तक बिहार चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि उस चुनाव में बहुत कम निर्दलीय ही निर्वाचित हो पाए। 1977 में 324 सदस्यीय विधानसभा में महज 24 यानी (7.4%) निर्दलीय ही जीतकर आए।
2020 में तो चकाई सीट से सिर्फ सुमित कुमार सिंह ही एकमात्र निर्दलीय विधायक बने। 2015 का चुनाव भी ऐसा ही था, जब 243 में से 4 ही निर्दलीय विधायक निर्वाचित हुए। यहां यह ध्यान रखना होगा कि बिहार से झारखंड राज्य के अलग होने के बाद बिहार विधानसभा की सदस्य संख्या 243 रह गई थी। 1977 से अब तक 1990 का चुनाव ही ऐसा रहा था, जब 324 सदस्यीय बिहार विधानसभा में सर्वाधिक 30 निर्दलीय जीत कर आए थे।
बिहार के चुनावी अखाड़े में राजनीतिक दलों की लगातार बढ़ती संख्या का एक अन्य कारण यह भी है कि छोटे क्षेत्रीय दल भाजपा, कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों और जदयू, राजद जैसे प्रमुख क्षेत्रीय दलों की चुनावी सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
1995 के बाद से हुए विभिन्न विधानसभा चुनावों के परिणामों पर सावधानी से गौर करें तो पता चलता है कि वास्तव में बिहार के चुनावों में दो गठबंधनों के बीच ही द्विध्रुवीय टक्कर होती है, ना कि दो राजनीतिक दलों के बीच। 2020 का पिछला विधानसभा चुनाव ही देखें तो चार प्रमुख राजनीतिक दलों में से राजद को 23.1% , भाजपा को 19.5%, जदयू को 15.4% और कांग्रेस को 9.5% वोट मिले थे। जबकि छोटे क्षेत्रीय दलों ने कुल मिलाकर 23.9% वोट हासिल कर लिए थे। इनमें से कुछ एनडीए और कुछ महागठबंधन के सहयोगी थे।
प्रमुख राजनीतिक दलों और छोटी क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा हासिल किए गए मतों की बात करें तो 2015 का चुनाव भी थोड़ा अलग था। भाजपा ने सर्वाधिक 24.4% वोट हासिल किए। इसके बाद राजद को 18.4%, जदयू को 16.8% और कांग्रेस को 6.7% वोट मिले।
2010 के विधानसभा चुनाव परिणाम में अंतर केवल यही था कि तब जदयू 22.6% वोट लेकर चुनावी दौड़ में सबसे आगे थी। उसके बाद राजद ने 18.8%, भाजपा ने 16.5% और कांग्रेस ने 8.4% वोट हासिल किए। इन सभी चुनावों में छोटे क्षेत्रीय दलों ने कुल वोटों का 20-24% हिस्सा हासिल किया था।
बिहार के विभाजन से पहले 1995 और 2000 में हुए विधानसभा चुनाव में छोटे क्षेत्रीय दलों को और भी अधिक समर्थन मिला था। 1995 के चुनाव में तो छोटे क्षेत्रीय दलों को 28.9% वोट मिले, जबकि 2000 में इन दलों ने 28.1% वोट प्राप्त किए।
बिहार में बड़ी संख्या में मौजूद छोटे क्षेत्रीय दल अकेले भले ही अधिक तादाद में सीटें न जीतें, लेकिन एक ऐसे राज्य में जहां गठबंधन चुनावी मॉडल बन चुका है, इन छोटे क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। ये बड़े दलों के बिखरे हुए वोटों को उनके पक्ष में लाने में मदद करते हैं, ताकि एक मजबूत समर्थन आधार तैयार किया जा सके। यह बताता है कि बिहार के चुनावी मुकाबले में राजनीतिक दलों की संख्या क्यों बढ़ रही है।
भले कोई बिहार चुनाव को द्विध्रुवीय मान रहा हो, लेकिन असल में यह दो राजनीतिक दलों के बीच नहीं, बल्कि दो गठबंधनों के बीच द्विध्रुवीय मुकाबला है। और गठबंधन में छोटे क्षेत्रीय दलों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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