N. Raghuraman’s column – Movement of people not only enhances transportation but also overall development | एन. रघुरामन का कॉलम: लोगों की आवाजाही ना सिर्फ परिवहन बल्कि समग्र विकास को भी बढ़ाती है

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5 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
इस रविवार की शाम मैं पूर्वोत्तर के ऐसे व्यक्ति से मिला, जो 28 सितंबर से 2 अक्टूबर के बीच होने वाले दुर्गापूजा महोत्सव के लिए मुम्बई से सिलीगुड़ी जाना चाहते थे। उन्होंने अपना पूरा दिन इस योजना में बिता दिया कि कैसे सस्ती यात्रा की जाए। मैंने उनसे पूछा कि चंद टिकट बुक करने में इतना समय क्यों लगा?
उन्होंने मुझे उन फ्लाइट की कीमतों के बारे में बताया, जिनसे पहले वो ससुराल वालों से मिलने कोलकाता और फिर अपने माता-पिता के पास सिलीगुड़ी जाना चाहते थे। 17 सितंबर तक कोलकाता की फ्लाइट टिकट करीब 4098 रुपए की है, जो धीरे-धीरे दोगुनी हो रही है और मुख्य पूजा के आसपास पांच अंकों में पहुंच जाती है।
बस बुकिंग ऐप के अनुसार, दुर्गा पूजा से पहले कोलकाता से सिलीगुड़ी की बस यात्रा भी आपको 4 से 5 हजार रु. के बीच पड़ सकती है। इन बसों का नियमित किराया 1300 से 1500 रु. के बीच है। जबकि सप्ताहांत समेत पीक अवधि में 1800 से 2500 रु. में टिकट मिल पाते हैं।
वो व्यक्ति योजना बना रहा था कि अपने परिवार को तो 17 सितंबर से पहले भेज देगा और खुद मुख्य पूजा के दिनों में जाएगा। वापसी में भी परिवार अलग-अलग तारीखों पर यात्रा करेगा, क्योंकि वीकेंड में 4-5 अक्टूबर को किराया बहुत अधिक है। और उन्हें 6 अक्टूबर को काम पर लौटना है।
चूंकि ट्रेन की बर्थें पहले ही बुक हो चुकी हैं, इसलिए उनके जैसे कई लोग कड़ी मेहनत कर रहे हैं, ताकि उत्सव के दिनों में परिवार समेत गृहनगर पहुंच पाएं और फिर वापस देश के पश्चिमी या दक्षिणी राज्यों में काम पर लौट सकें। 574 किमी लंबे कोलकाता से सिलीगुड़ी मार्ग के लिए वोल्वो बस का किराया 8 रुपए प्रति किमी से अधिक है।
टिकट की कीमत 5 हजार रुपए है। यदि कोलकाता से इंदौर मार्ग से इसकी तुलना करें तो इसी वोल्वो में 24 से 26 सितंबर के बीच किराया 3800 रुपए है, जो 1620 किमी की यात्रा के लिए 2.3 रुपए प्रति किमी पड़ता है। यहां तक कि 1940 किमी लंबाई वाले देश के सबसे लंबे मार्गों में से एक जोधपुर-बेंगलुरु रूट पर भी वोल्वो का किराया 2550 रुपए है, जो महज 1.3 रुपए प्रति किमी पड़ता है।
बीते पांच दशक में भारतीय निजी बस उद्योग में जबरदस्त बढ़ोतरी देखी गई है। 1961 में निजी क्षेत्र में जहां सिर्फ 38 हजार बसें चलती थीं, वहीं 2019 तक यह संख्या बढ़कर 18.9 लाख से अधिक हो गई। 60 साल से भी कम समय में 47 गुना की बढ़ोतरी हुई है।
2019 तक भारत की सड़कों पर चलने वाली 93 प्रतिशत से अधिक बसें निजी क्षेत्र में थीं, जिनमें 6.64 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर भी देखी गई। 2026 तक इनकी कीमत 1.04 लाख करोड़ रुपए होना अनुमानित है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बस किरायों में अंतर साफ दिखता है।
बेंगलुरु से चेन्नई के लिए एक एसी सीटर बस का किराया महज 400 रुपए हो सकता है (दूरी 347 किमी)। उत्तर की ओर जाएं तो दिल्ली-लुधियाना मार्ग का किराया सामान्य रूप से 550 रुपए है (दूरी 307 किमी)। लेकिन यदि पूर्व में देखें तो गुवाहाटी-डिब्रूगढ़ मार्ग का किराया 650 रुपए या इससे कुछ अधिक है (दूरी 279 किमी)। ये सभी दरें अनुमानित हैं।
इस असमानता का कारण क्या है? जवाब है- ग्राहक की मांग और बाजार की आपूर्ति। चूंकि पूर्वोत्तर राज्य रोजगार के पर्याप्त अवसर मुहैया नहीं करा पा रहे हैं तो उन्हें चाहिए कि भले वे स्थानीय लोगों को रियायती यात्रा ना दें, लेकिन उचित कीमत पर परिवहन तो उपलब्ध कराएं। ताकि वहां की आबादी दूसरे राज्यों में जाकर जीवनयापन कर सके।
उचित कीमत पर परिवहन देने से ये प्रवासी कर्मचारी अपने परिवार से मिलने वापस आएंगे और अपनी कमाई हुई राशि यहीं खर्च भी करेंगे। जब वे इतना अधिक खर्च परिवहन पर ही कर देंगे तो दूसरी चीजों पर उदारता के साथ खर्च नहीं कर पाएंगे। इस कारण राज्य आय से वंचित रहता है और उसकी अर्थव्यवस्था गति नहीं पकड़ पाती।
फंडा यह है कि प्रतिस्पर्धा बढ़ाकर उचित मूल्य का परिवहन व्यवसाय करना राज्यों की आय बढ़ाता है और स्थानीय लोगों को उत्पादक बने रहने के लिए प्रोत्साहित करता है। इससे अर्थव्यवस्था में वृद्धि होती है।
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