Shekhar Gupta’s column – Similarities and differences between Indira and Modi | शेखर गुप्ता का कॉलम: इंदिरा और मोदी में समानताएं और अंतर

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3 घंटे पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
जून 2024 में जिस दिन नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार शपथ ग्रहण की, उसी दिन यह तय हो गया था कि इस साल वे प्रधानमंत्री पद पर लगातार सबसे लंबे समय तक बने रहने वाले दूसरे नेता बन जाएंगे और इस मामले में इंदिरा गांधी (24 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1977 तक) से आगे निकल जाएंगे।
उसी दिन यह भी तय हो गया था कि मोदी और इंदिरा के बीच तुलनाएं शुरू हो जाएंगी। लेकिन पहले हमें देखना होगा कि दोनों ने जब सत्ता की बागडोर संभाली, तब राजनीतिक वास्तविकताएं क्या थीं और उनकी सत्ता के सामने क्या चुनौतियां थीं।
इंदिरा गांधी और मोदी ने बिलकुल अलग-अलग परिस्थितियों में सत्ता संभाली थी। इन दोनों ने अपनी अलग-अलग राजनीतिक पूंजी के साथ शुरुआत की। 1966 में इंदिरा गांधी चुनाव जीतकर सत्ता में नहीं आई थीं। लाल बहादुर शास्त्री के असामयिक निधन के बाद उन्हें एक सुविधाजनक विकल्प के रूप में चुना गया था।
शुरू में संसद में सहमी-सहमी दिखकर उन्होंने कोई अच्छी शुरुआत नहीं की थी और राममनोहर लोहिया ने उन्हें गूंगी गुड़िया कहकर खारिज कर दिया था। उन्हें विरासत में एक टूटी हुई अर्थव्यवस्था मिली थी। 1965 में आर्थिक वृद्धि दर शून्य से नीचे (-2.6 फीसदी) थी। युद्ध, सूखा, खाद्य संकट तथा राजनीतिक अस्थिरता की तिहरी मार; 19 महीनों के अंदर दो पदासीन प्रधानमंत्रियों के निधन ने भारत को कमजोर कर दिया था।
लेकिन 2014 में मोदी के लिए परिस्थितियां इससे बिलकुल उलटी थीं। वे 30 वर्षों के बाद बहुमत से चुनाव जीतकर आए थे और अपनी पार्टी के द्वारा चुने गए उम्मीदवार थे। अर्थव्यवस्था इससे पिछले 15 साल से औसतन 6.5 फीसदी की मजबूत दर से आगे बढ़ रही थी। उन्होंने शांतिपूर्ण, नियोजित, अपेक्षित सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया से गद्दी संभाली।
यह भी उल्लेखनीय है कि सत्ता का 11वां वर्ष इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतकर नहीं बल्कि संसद में अपने भारी बहुमत (518 सीटों में से 352 सीटें) के बूते संविधान का उल्लंघन करके और विपक्ष को जेल में डालकर हासिल किया था।
मोदी ने अपना तीसरा कार्यकाल चुनाव लड़कर हासिल किया, बेशक वे बहुमत हासिल करने से चूक गए। लेकिन उन्हें 11 वर्षों में न तो अपनी पार्टी के अंदर और न विपक्ष की ओर से किसी बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। वैश्विक स्थिति भी कुल मिलाकर स्थिर व अनुकूल रही।
इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीति एक विचारधारा (समाजवादी रुझान वाली) के बूते चलाई थी- शुरू में मजबूरी के कारण, और उसके बाद अपनी पसंद से। मोदी का जन्म भगवा राजनीति में हुआ और वे उस रंग में पूरे रंगे रहे।
इंदिरा गांधी की ताकत समय के साथ फर्श और अर्श को छूती रही। मोदी की ताकत 2024 में 240 सीटें जीतने के बाद के कुछ महीनों को छोड़ निरंतर स्थिर रही। पार्टी के भीतर से उन्हें कोई चुनौती नहीं है। उन्होंने राज्यों के क्षत्रपों की जगह अनजान चेहरों को स्थापित कर दिया है। इस मामले में उनमें और इंदिरा गांधी में कोई फर्क नहीं है। हां, विपक्ष और बोलने की आजादी से निबटने के मामले में इमरजेंसी की बराबरी करना (ईश्वर न करे कोई इसकी कोशिश भी करे) मुश्किल होगा।
मोदी छप्पन इंच के सीने के साथ ताकतवर होते गए। और इंदिरा गांधी को भी राजनीतिक शुचिता से अनजान उस दौर में अपने मंत्रिमंडल में एकमात्र मर्द कहा जाता था। दोनों ने इन विशेषणों को जी कर दिखाया।
इंदिरा गांधी के मामले में हमने देखा कि 1977-84 के बीच जब वे सत्ता से बाहर थीं और जब वापस आईं, तब उन्होंने एक अलग तरह का राजनीतिक कौशल दिखाया। लेकिन 11 साल वाली तुलना में यह दौर शामिल नहीं है।
एक अहम सवाल यह है कि भारत की एकजुटता किसने बेहतर तरीके से बनाए रखी। इंदिरा गांधी ने मिजोरम और नगालैंड में बगावत का बेरहमी से मुकाबला किया। इस मामले में उनकी परेशानियां 1980 के बाद शुरू हुईं।
मोदी कश्मीर घाटी में नाटकीय बदलाव लाए और उत्तर-पूर्व में स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिश जारी है। लेकिन मणिपुर में नाकामी का अंत नहीं हो रहा। एक सकारात्मक बात यह है कि भारत के मध्य एवं पूर्वी हिस्से में माओवाद का लगभग सफाया कर दिया गया है।
यह सिलसिला रणनीतिक समेत विदेश मामलों में भी जारी दिखता है। इंदिरा गांधी के 11 साल उस दौर में बीते, जब दुनिया में शीतयुद्ध उफान पर था। उन्होंने सोवियत संघ के साथ एक संधि की, जिसमें आपसी सुरक्षा की शर्त बड़ी कुशलता से शामिल की गई; उन्होंने चीन की ओर निक्सन-किसिंजर के झुकाव का सामना किया और भारत के लिए उपलब्ध छोटी-छोटी गुंजाइशों का कुशलता से उपयोग किया।
मोदी ने ‘सबके साथ दोस्ती’ के भाव के साथ शुरुआत की, लेकिन उनकी व्यक्ति-केंद्रित कूटनीति को पाकिस्तान-चीन से जुड़ी हकीकतों का जल्दी ही सामना करना पड़ा। इंदिरा गांधी ने भारत की परमाणु शक्ति का ऐलान 1974 (पोकरण परीक्षण) में कर दिया था, लेकिन पाकिस्तान की परमाणु धमकी का जवाब देने में मोदी को 2019 (बालाकोट) और 2025 (ऑपरेशन सिंदूर) तक इंतजार करना पड़ा। यह उनकी झोली में एक बड़ी उपलब्धि है।
आश्चर्य की बात है कि अर्थव्यवस्था के मामले में भी कई समानताएं दिखती हैं। मोदी इस उम्मीद के साथ सत्ता में आए थे कि वे इस पर जोर देंगे कि व्यवसाय में पड़ना सरकार का काम नहीं। लेकिन उन्होंने वितरणवादी राजनीति का आकार विशाल कर दिया है। निजीकरण की जगह सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति अटूट प्रतिबद्धता जारी है।
अपने प्रथम और दूसरे कार्यकालों में मोदी ने कुछ साहसिक सुधारों की कोशिश की थी, मसलन भूमि अधिग्रहण, कृषि तथा श्रम सुधारों के कानून, सिविल सेवाओं में बाहर से प्रवेश की व्यवस्था आदि। हां, ट्रम्प की जोर-जबरदस्ती और फ्री ट्रेड समझौतों ने जरूर 6 से 6.5 फीसदी की विकास दर की उम्मीदों में खलल डाल दिया है। अब देखना यह है कि नए सुधार किए जाते हैं या नहीं।
दोनों नेताओं ने अपनी सत्ता का 11वां साल कैसे पाया.. सत्ता का 11वां वर्ष इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतकर नहीं बल्कि संसद में अपने भारी बहुमत के बूते संविधान का उल्लंघन करके और विपक्ष को जेल में डालकर हासिल किया था। मोदी ने तीसरा कार्यकाल चुनाव लड़कर हासिल किया, भले ही वे बहुमत पाने से चूक गए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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