Thursday 09/ 10/ 2025 

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Priyadarshan’s column – If bridges are built between languages, the walls will fall down on their own | प्रियदर्शन का कॉलम: भाषाओं के बीच पुल बनेंगे तो दीवारें खुद गिर जाएंगी

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5 घंटे पहले

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प्रियदर्शन लेखक और पत्रकार - Dainik Bhaskar

प्रियदर्शन लेखक और पत्रकार

इन दिनों भाषाओं को भाषाओं से लड़ाया जा रहा है- मराठी को हिंदी, गुजराती और कन्नड़ से, कन्नड़ को हिंदी से। हिंदी और उर्दू को एक-दूसरे से अलग बताने और उनका झगड़ा लगाने की कोशिशें तो जाने कितने बरसों से चल रही हैं। गाहे-बगाहे मैथिली और भोजपुरी में भी हिंदी-विरोधी स्वर देखने को मिल रहे हैं।

क्या ये झगड़े अपनी भाषाओं से प्रेम का नतीजा हैं? भाषाएं राजनीति और टकराव का मुद्दा क्यों बन जाती हैं? हम भाषाओं को बनाते हैं या भाषाएं हमें बनाती हैं? क्या वाकई मराठी वालों को मराठी की, क​न्नड़ वालों को कन्नड़ की या फिर हिंदी वालों को हिंदी और उर्दू वालों को उर्दू की फिक्र है? या यह वैसा ही अंधा प्यार है, जैसा हम धर्म से करते हैं?

अधार्मिक अचारण के बावजूद अपने हिंदू या मुसलमान होने पर गर्व करते हैं? या अपने देश और समाज से, जिसे चलाने की बहुत सारी गड़बडियों में- भ्रष्टाचार में, भेदभाव में, तरह-तरह के अलगाव में- शामिल रहते हैं? या कुछ और करीब ले जाएं तो जैसे मां से? हम अपनी मां से बहुत प्रेम करते हैं, लेकिन अमूमन उसके प्रति लापरवाह रहते हैं, वह हमारी उदासीनता की शिकार होती है, कई बार गुस्से और उपेक्षा की भी।

भाषाएं शायद मां जैसी ही होती हैं। उनके आंचल में हम पलते-बढ़ते हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, मां का आंचल दूर होता जाता है, हम रोजी-रोटी के लिए दूसरे शहरों और प्रांतों में निकल जाते हैं। भाषाओं का भी यही मामला है।

हम जब तक घर में होते हैं, मैथिली, भोजपुरी, बुंदेलखंडी, राजस्थानी या दूसरी भाषाएं बोलते हैं, स्कूल पहुंचते हिंदी बोलने लगते हैं और नौकरी करने के लिए अंग्रेजी की मदद लेते हैं। बल्कि घरों से मगही, मैथिली, भोजपुरी उठती सी जा रही है और हिंदी उनकी जगह ले रही है और स्कूलों में अंग्रेजी हिंदी को अपदस्थ कर रही है।

तो हमारा भाषा-प्रेम दूसरी भाषाओं के साइनबोर्ड तोड़ने के काम भले आए, उससे राजनीति एक विभाजन भले पैदा कर ले, लेकिन वह भाषाओं को नहीं बचा पा रहा है। मराठी, तेलुगू, तमिल, कन्नड़, बांग्ला- सबका हक अंग्रेजी मार रही है। बल्कि यह कहना भी शायद अंग्रेजी के साथ अन्याय है, क्योंकि वह दे भी काफी कुछ रही है।

आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, दर्शन सब अंग्रेजी के मार्फत यहां आ रहा है। अब तो धर्म और शास्त्र भी। लोग वेद-पुराण, रामायण-महाभारत, शिव कथाएं- सब अंग्रेजी में पढ़ रहे हैं। तो अंग्रेजी को दुश्मन मान लेना वैसा ही पाखंड होगा, जैसा हिंदी या मराठी से प्रेम का दिखावा करना या एक भाषा को मां मान दूसरी से सौतेला व्यवहार करना।

दरअसल भाषा-नीति भारत में बहुत उलझ गई है। अंग्रेजी राजकाज और कारोबार की भाषा बन गई है। हिंदी गरीब घरों की सम्पर्क-भाषा है। क्षेत्रीय भाषाओं के अपने दायरे हैं। इन सरहदों को तोड़ने का एक ही तरीका है- हम एक से ज्यादा भाषाएं सीखें।

यहां सबको अतिरिक्त श्रम करने की जरूरत है- हम चाहते हैं कि बांग्ला, तमिल वाले हिंदी सीखें तो हिंदी वालों को भी बांग्ला-तमिल-मराठी-गुजराती- कुछ सीखनी चाहिए। इससे हिंदी भाषिक और भौगोलिक दोनों स्तरों पर समृद्ध होगी- दूसरी भारतीय भाषाएं भी।

यह समृद्धि उन्हें शक्ति देगी और शायद ज्ञान-विज्ञान के दूसरे क्षेत्रों में स्वीकार्यता भी। अगर भाषाओं के बीच यह पुल बनेगा तो वह दीवार अपने-आप गिरेगी, जो राजनीति खड़ी कर रही है। फिर हम भी कुछ बदलेंगे, हमारी विश्व-दृष्टि भी कुछ बड़ी होगी- क्योंकि हम ही शब्द, वाक्य और भाषा नहीं रचते, भाषाएं भी हमें रचती हैं।

इन दिनों बहुत सारी भाषाएं और बोलियां खतरे में हैं। ‘भास्कर’ में खबर छपी कि ऐसी ही खतरे में पड़ी भाषा भूमिज को बचाने के लिए लोगों ने यह भाषा सीखी, इसके स्कूल खोले। यह जज्बा दूसरी भाषाओं के लिए जरूरी है, जो संख्या-बल के हिसाब से नहीं मर रहीं, लेकिन जिनका तत्व और सत्व कुछ कमजोर पड़ रहा है।

भाषा-नीति बहुत उलझ गई है। अंग्रेजी राजकाज और कारोबार की भाषा बन गई है। हिंदी गरीब घरों की सम्पर्क-भाषा है। क्षेत्रीय भाषाओं के अपने दायरे हैं। इन सरहदों को तोड़ने का एक ही तरीका है- हम एक से ज्यादा भाषाएं सीखें। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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