Neerja Chaudhary’s column – The foundation of democracy is in the fairness of voting | नीरजा चौधरी का कॉलम: मतदान की निष्पक्षता में ही लोकतंत्र की बुनियाद है

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5 घंटे पहले
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नीरजा चौधरी वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार
पिछले रविवार को हुई चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस से कई त्योरियां तन गई हैं। यह प्रेस कॉन्फ्रेंस राहुल गांधी द्वारा लगाए गए वोट चोरी के गंभीर आरोपों के बाद आयोजित हुई थी। राहुल ने महादेवपुरा (कर्नाटक) और महाराष्ट्र में मतदान में धांधली के उदाहरण दिए और अब वे बिहार में 1300 किलोमीटर की वोट-अधिकार यात्रा कर रहे हैं।
यह प्रेस कॉन्फ्रेंस पिछले हफ्ते भाजपा नेता अनुराग ठाकुर द्वारा राहुल और प्रियंका गांधी, अखिलेश और डिम्पल यादव, अभिषेक बनर्जी और एमके स्टालिन जैसे प्रमुख विपक्षी नेताओं के निर्वाचन क्षेत्रों में हुए चुनावों की निष्पक्षता पर सवाल उठाने और चुनावों में कथित धांधली के लिए उनसे इस्तीफा देने के लिए कहने के बाद हुई थी। यानी सिर्फ राहुल ही नहीं, भाजपा भी चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा कर रही थी। आयोग के लिए यह कोई सुखद स्थिति नहीं थी।
ऐसे में उसके द्वारा अपनी स्थिति स्पष्ट करने का प्रयास समझ में आता है, और यह स्वागतयोग्य भी है। चुनाव आयोग ने अपनी प्रक्रियाओं के बारे में कई सवालों के जवाब दिए, लेकिन हाल के दिनों में उठाए कई सवालों का उसने उत्तर नहीं दिया है। उदाहरण के लिए, घरों के क्रमांक के रूप में “शून्य’ होने के राहुल के सवाल पर उसने सफाई दी कि यह संख्या गरीबों और झुग्गी में रहने वालों के घरों के लिए दी गई थी।
चुनाव आयोग ने इस बात का भी कोई जवाब नहीं दिया कि बिहार चुनाव से ठीक पहले आनन-फानन में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण करवाने की क्या जरूरत थी। उसने इसका जवाब नहीं दिया कि मतदाता सूची से नाम केवल हटाए ही क्यों गए हैं, जोड़े क्यों नहीं गए हैं?
वहीं वैधता साबित करने का दायित्व मतदाता पर क्यों डाला गया है; इस प्रक्रिया के बारे में राजनीतिक दलों से पहले परामर्श क्यों नहीं किया गया आदि। बेशक, इनमें से कुछ सवाल भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष हैं और उसने आयोग से मतदाता सूची से हटाए गए 65 लाख लोगों के नाम प्रकाशित करने और उन्हें हटाने के कारण बताने को कहा है।
एक निर्णायक के रूप में, आयोग कह सकता था कि वह हर उठाए गए सवाल पर गौर करेगा और उनसे संपर्क करेगा। उसने राहुल गांधी पर ही हमला क्यों किया? क्या वाकई राहुल को (लेकिन अनुराग ठाकुर को नहीं) सात दिनों के भीतर हलफनामा देने या देश से माफी मांगने का अल्टीमेटम देने की जरूरत थी? अगर राहुल गलत कारणों से सवाल उठा रहे थे, तो क्या आयोग को विपक्ष के नेता के सवाल पूछने के अधिकार पर सवाल उठाना चाहिए? और उन्हें मतदाता-विरोधी और संविधान-विरोधी करार देना चाहिए?
यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि पूरी प्रक्रिया मुख्य चुनाव आयुक्त बनाम राहुल गांधी का रंग ले बैठी। चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस ने उसके निष्पक्ष चरित्र पर सवाल उठाए हैं, यद्यपि मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने स्पष्ट कहा है कि चुनाव आयोग न तो किसी पक्ष के लिए है और न ही विपक्ष के लिए।
दूसरी तरफ विपक्ष द्वारा मुख्य चुनाव आयुक्त पर महाभियोग लगाने की बात करना भी उतना ही अनुचित है। जरूरत इस बात की है कि स्थिति को थोड़ा शांत किया जाए ताकि हमारी संस्थाएं ठीक से काम कर सकें, यह नहीं कि गतिरोध को और गहरा किया जाए।
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सरकार करती है। लेकिन टीएन शेषन के समय (1990-96) से ही आयोग ने अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। इसलिए नहीं कि शेषन पूरी तरह से दोषरहित थे- दरअसल वे राजीव गांधी के अधीन कैबिनेट सचिव रह चुके थे और उनके करीबी थे। बल्कि इसलिए कि जब वे उस महत्वपूर्ण पद पर बैठे, तो उन्होंने चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित की ताकि सभी दल आदर्श आचार संहिता को गंभीरता से लें। उनके बाद आने वाले चुनाव आयुक्तों ने भी कुल-मिलाकर यही करने की कोशिश की है।
लोकतंत्र में मतदान का अधिकार जितना मूल्यवान है, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग की विश्वसनीयता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। आयोग को न केवल निष्पक्ष होना होगा, बल्कि निष्पक्ष दिखना भी होगा।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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