Nanditesh Nilay’s column – Where do our parents stand in this era of markets and products? | नंदितेश निलय का कॉलम: बाजार और उत्पादों के इस दौर में हमारे माता-पिता कहां खड़े हैं?

- Hindi News
- Opinion
- Nanditesh Nilay’s Column Where Do Our Parents Stand In This Era Of Markets And Products?
43 मिनट पहले
- कॉपी लिंक

नंदितेश निलय वक्ता, एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक
हाल ही में नोएडा के एक वृद्धाश्रम में वृद्धों की दयनीय स्थिति की खबरें बेहद परेशान और विचलित करने वाली रहीं। वृद्धाश्रम में पुलिस को बहुत सारे वृद्ध दम्पती बेहद दयनीय हालत में मिले। टीम-बिल्डिंग और इनक्लूसिवनेस की रट लगाती दुनिया में वृद्ध दम्पतियों को वृद्धाश्रम में रहने के लिए मजबूर देखना वाकई दुखद है।
परिवारों में जड़ें फैला चुकी यह बीमारी एक गहरा भावनात्मक शून्य पैदा कर रही है। यह एक महामारी जैसा सामाजिक व्यवहार बनता जा रहा है, जहां युवाओं को महत्व देने वाली दुनिया में वृद्धों को उपयोगिता का वह स्पेस नहीं मिल रहा; जिस पर समाज अपने जुड़ाव को बुनता है।
भगवान राम और श्रवण कुमार की दुहाई देने वाले देश में कोई भी पुत्र-पुत्री अपने माता-पिता के प्रति इतना कृतघ्न और उदासीन कैसे हो सकते हैं? एक तरफ हम प्रकृति या धरती माता के प्रति सहानुभूति और देखभाल को बढ़ावा दे रहे हैं और दूसरी तरफ अपने ही माता-पिता के प्रति भावनात्मक रूप से उदासीन होते जा रहे हैं। क्या यह एक खतरनाक संकेत नहीं है? जाति, धर्म, लिंग, जाति के विभेदों के बाद वृद्ध बनाम युवा का यह पूर्वग्रह भारत जैसे लोकतंत्र के लिए हतोत्साहित करने वाला प्रतीत हाे रहा है।
और हां, सम्प्रेषण की जटिलता, नौकरी-पेशे की जवाबदेही, सिकुड़ते शहरों और गांव में रहने की जिद इस सत्य को झुठला नहीं सकते कि युवा तनिक ज्यादा संवेदनशील और कृतज्ञ होता, तो वस्तुस्थिति कुछ और होती। हमेशा इस बात पर जोर दिया जाता है कि भारत युवाओं का देश है और भारत की 50% से अधिक जनसंख्या 25 वर्ष से कम आयु की है।
यदि हम 2020 तक के आंकड़ों को देखें, तो पाएंगे कि एक भारतीय की औसत जीवन-प्रत्याशा 29 वर्ष है, जबकि चीन की 37 और जापान की 48 वर्ष है। यह भी अनुमान किया गया है कि 2030 तक भारत का निर्भरता-अनुपात 0.4 से थोड़ा अधिक होगा। लेकिन युवा होने की सार्थकता क्या है?
यह प्रश्न इसलिए पूछना जरूरी है क्योंकि हमारे देश में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन क्यों? क्या माता-पिता के साथ परिवार में रहना वाकई इतना मुश्किल है? क्या वे परिवार की जड़ नहीं हैं? फिर स्वामी विवेकानंद का वह स्वप्न हमें कहां से मिलेगा, जब पूरा संसार विश्व-बंधुत्व की भावना से निर्मित होता दिखाई देगा? ऐसे समय में जब उत्पाद की पहचान दिन-प्रतिदिन मानवीय पहचान को कम करती जा रही है और ग्राहक को भगवान का दर्जा दिया जा रहा है, माता-पिता कहां खड़े हैं?
वैश्विक स्तर पर देखें तो पाएंगे कि 2050 तक दुनिया में हर 6 में से एक व्यक्ति 65 से अधिक आयु का होगा। इसका मतलब है कि 2050 तक यूरोप और उत्तरी अमेरिका में रहने वाला हर 4 में से एक व्यक्ति 65 वर्ष या उससे अधिक आयु का हो सकता है।
इस अनुमान के अनुसार, 80 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों की संख्या 2019 में 143 मिलियन से बढ़कर 2050 में 426 मिलियन हो सकती है। ये मानवीय संख्याएं हैं और मनुष्यों को देखभाल और करुणा की आवश्यकता होती है।
आखिरकार, हम किस तरह के देश का निर्माण करना चाह रहे हैं? ऐसी स्थिति में, क्या विकसित भारत का सपना अधूरा नहीं लगता? क्या हम कहीं न कहीं एक असंवेदनशील समाज की ओर बढ़ रहे हैं? आज जब हम टेक्नोलॉजी की तेज-तर्रार दुनिया पर युवाओं की बढ़ती निर्भरता और खासकर डेटा व 5जी के प्रति बढ़ते आकर्षण को देख रहे हैं, ऐसे में उद्योगपति मुकेश अम्बानी ने भारतीय युवाओं को एक खास सीख दी है। उन्होंने कहा कि हमारे समाज में युवाओं के लिए 4जी या 5जी से ज्यादा खास उनके माता-पिता होने चाहिए।
आज के युवा अपने खेल सितारों से भी प्रेरणा ले सकते हैं। सचिन तेंदुलकर ने अपने पिता की उस सलाह को हमेशा याद रखा, जिसमें उन्हें एक अच्छा इंसान बने रहने की हिदायत दी गई थी। हम रोजर फेडरर की उस छवि को कैसे भूल सकते हैं कि जब वो मैदान पर होते थे, तब भी उनकी पत्नी, बच्चे, माता-पिता, कोच सभी एक साथ बैठकर बॉक्स से चीयर करते नजर आते थे। वृद्धाश्रम ले जाने के बजाय यह बेहतर होगा कि हम अपने माता-पिता के साथ रहना सीखें और खंडित होती भावनाओं को ठीक करें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Source link