Wednesday 10/ 09/ 2025 

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Priyadarshan’s column – Language tells what kind of human being or society we are | प्रियदर्शन का कॉलम: भाषा बताती हैै कि हम किस तरह के मनुष्य या समाज हैं

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9 घंटे पहले

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प्रियदर्शन लेखक और पत्रकार - Dainik Bhaskar

प्रियदर्शन लेखक और पत्रकार

अरुंधति रॉय अपनी नई किताब ‘मदर मेरी कम्स टु मी’ में भाषा के बारे में लिखते हुए बताती हैं कि स्कूल के दिनों में उनकी भाषा बहुत खराब थी। लेकिन क्या यह उनकी भाषा थी? वे लिखती हैं- ‘तब भी मुझे पता था कि जो भाषा मैं लिखती हूं, वह मेरी नहीं है। ‘मेरी’ से मेरा मतलब मातृभाषा से नहीं है और ‘भाषा’ से मेरा मतलब अंग्रेजी, हिंदी, मलयालम से नहीं है। मेरा मतलब है लेखक की भाषा। वह भाषा जिसे मैं इस्तेमाल करूं, वह नहीं जो मेरा इस्तेमाल करे। वह भाषा जिसमें मैं अपनी बहुभाषिक दुनिया की व्याख्या अपने से कर सकूं।’

भाषा पर इन दिनों विचार करने का चलन खत्म हो रहा है। भाषा जैसे किन्हीं पुराने दिनों की चीज हो चुकी है जिसे हम जानते हैं और जिसका ठीक उसी तरह इस्तेमाल कर सकते हैं जैसे चाकू का, फल का या किसी और चीज का करते हैं। जबकि भाषा रोज हमारे भीतर बनती है और हमें भी बनाती हैं। फल या चाकू भी किसी लेखक के हाथ में अलग अर्थ ग्रहण करते हैं।

भाषा हमारा भेद खोल देती है कि हम किस तरह के मनुष्य या समाज हैं। भाषा की कसौटी पर देखें तो लगता है हम एक लगातार सपाट समाज में बदलते जा रहे हैं, जो कुछ ‘रेडिमेड’ किस्म के विचारों या संवेदना के बीच जीने का आदी हो चला है। इसका सबसे दारुण दर्शन सोशल मीडिया पर होता है, जहां हम एक पल में किसी को जन्मदिन की बधाई देते हैं और दूसरे पल किसी की मौत के मातम में शामिल हो लेते हैं। ‘एचबीडी’ और ‘आरआईपी’ तक सिमटी यह भाषा बताती है कि हमारे भीतर सच्चा सरोकार नहीं बचा है।

लेकिन यह टिप्पणी अपने समाज को कोसने के लिए नहीं लिखी जा रही है। सच तो यह है कि समाज के व्यापक हिस्से में सारी गिरावटों के बावजूद बहुत सारी ऊष्मा बची हुई है, एक-दूसरे की मदद का जज्बा कायम है, रिश्तों के प्रति संवेदनशीलता बरकरार है। लेकिन भाषा के साथ हमारा बरताव बताता है कि हम एक तरह के ठहराव के शिकार हो रहे हैं। हम सोचना कम कर चुके हैं, महसूस करना कम कर चुके हैं, जो परंपरा या प्रथा के रूप में हासिल है, उसे जस का तस स्वीकार कर रहे हैं, जो आधुनिकता के तौर पर बाजार हमें बेच रहा है, उसे खुशी-खुशी खरीद रहे हैं।

लेकिन इसमें मुश्किल क्या है? मुश्किल बस इतनी है कि जब कोई चीज ठहर जाती है तो वह सड़ने लगती है, हम विचार करना छोड़ देते हैं तो विचार भी हमें छोड़ता चला जाता है। हम भाषा को खोजना बंद कर देते हैं तो भाषा भी हमें बनाना बंद कर देती है। हम बस लगातार यांत्रिक मनुष्य होते जाते हैं। इस यांत्रिक मनुष्य के लिए भाषा भी बस यंत्र जैसी रह जाती है।

कहीं वह दबदबे के काम आती है कहीं दिखावे के, कहीं वह ताकत का औजार बन जाती है तो कहीं सौदे और कभी-कभी भयादोहन तक के सामान में बदल जाती है। फिर धीरे-धीरे शब्द खोखले होते जाते हैं, अपने अर्थ खोने लगते हैं। इन दिनों हमारी राजनीति की भाषा कुछ ऐसी ही हो चली है।

नेता कुछ भी बोलें, हम भरोसा करने को तैयार नहीं होते। जिसका भरोसा करते हैं, वह हमसे कुछ भी करवा सकता है- दूसरों से नफरत, दूसरों के प्रति हिंसा। चूंकि हमारे पास हमारा निर्माण करने वाली भाषा नहीं बचती, लेकिन भीतर कोई आवेग बचा रहता है तो उसे उन्माद में बदलना, उसे अपने हित में इस्तेमाल करना दूसरों के लिए आसान हो जाता है।

हम वास्तविक मुद्दों को छोड़ भावनात्मक मुद्दों पर लड़ते दिखते हैं और अपनी पहचान के नकली गर्व से लैस अपनी मनुष्यता भूलते जाते हैं। भाषा अक्षरों, शब्दों और वाक्यों से नहीं, हमारे भीतर की उथल-पुथल से बनती है- हमारे प्रेम से, करुणा से, छटपटाहट से, गुस्से से- लेकिन यह भाषा हम भूलते जा रहे हैं, क्योंकि न वास्तविक प्रेम बचा है न वैध गुस्सा। यह याद रखना जरूरी है कि भाषा हमारे मनुष्य होने की बुनियादी शर्तों में से एक है।

हम एक पल में किसी को जन्मदिन की बधाई देते हैं तो दूसरे पल किसी की मौत के मातम में शामिल हो लेते हैं। ‘एचबीडी’ और ‘आरआईपी’ तक सिमटी यह भाषा बताती है कि हमारे भीतर सच्चा सरोकार नहीं बचा है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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