Palki Sharma’s column – If there is anarchy in the neighborhood, we cannot move forward either | पलकी शर्मा का कॉलम: पड़ोस में अराजकता हो तो हम भी आगे नहीं बढ़ सकते

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7 घंटे पहले
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पलकी शर्मा मैनेजिंग एडिटर FirstPost
जब किसी देश में अराजकता के हालात निर्मित होते हैं, तो यह अमूमन अचानक नहीं होता। नेपाल कई सालों से भीतर ही भीतर सुलग रहा था, लेकिन इस हफ्ते यह एक बड़े राजनीतिक संकट के रूप में फूट पड़ा। 2008 में राजतंत्र खत्म होने के बाद यह नेपाल का सबसे गंभीर राजनीतिक संकट है।
इसकी शुरुआत एक अजीब घटना से हुई : सरकार ने सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर आए, उन्होंने अनिश्चितकालीन कर्फ्यू की अवहेलना की, पुलिस से भिड़ गए और संसद की ओर मार्च किया। हिंसक झड़पें हुईं। जब तक सरकार ने प्रतिबंध हटाया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
भारत इस संकट को चिंता के साथ देख रहा है। क्योंकि नई दिल्ली के लिए यह दक्षिण एशिया में एक बड़े और परेशान कर देने वाले पैटर्न का हिस्सा है। पिछले तीन सालों में ही हमारे तीन पड़ोसी देश- श्रीलंका, बांग्लादेश और अब नेपाल- व्यापक प्रदर्शनों के दबाव में राजनीतिक सिस्टम के ढहने के गवाह बने हैं। इनकी कहानियां अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन नतीजा एक ही है। और पड़ोस में ऐसे किसी भी संकट का स्वाभाविक ही भारत पर भी असर होता है।
जरा भारत के नक्शे के इर्द-गिर्द देखें। दक्षिण में, 2022 में श्रीलंका में कर्ज संकट के कारण खाने-पीने की चीजों, ईंधन और दवाओं की कमी हो गई। लोगों ने राष्ट्रपति भवन पर हमला कर दिया। सरकार और अर्थव्यवस्था चरमरा गई। पूर्व में, 2024 में बांग्लादेश में भी अशांति फैली। विवादित कोटा नीति के खिलाफ छात्रों ने विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया।
चरमपंथी समूहों ने आंदोलन को हथिया लिया। शेख हसीना को भारत पलायन करना पड़ा। उत्तर में, अब नेपाल में भी अशांति है। पश्चिम में पाकिस्तान है- जिसकी वास्तविक कमान सेना प्रमुख के हाथों में है। पाकिस्तान के बाद अफगानिस्तान में भी तालिबानी राज है। इसमें म्यांमार को न भूलें, जो 2021 में सैन्य तख्तापलट के बाद से ही गृहयुद्ध में फंसा हुआ है। दक्षिण एशिया में अस्थिरता अब आम हो गई है।
भारत के आसपास मौजूद अशांति के ये द्वीप उसके लिए दो बड़े खतरे पैदा करते हैं। पहला, सुरक्षा से जुड़े संकट। शरणार्थी सीमा पार करके आ सकते हैं, चरमपंथी सुरक्षित जगह ढूंढ सकते हैं और अशांत लोग सीमावर्ती राज्यों में अव्यवस्था फैला सकते हैं। प्रधानमंत्री ने हाल ही में घुसपैठियों के बारे में चेतावनी दी थी, जो भारत की जनसांख्यिकी को बदलना चाहते हैं- उनका इशारा इसी तरह के संकटों की ओर था।
दूसरा खतरा है : आर्थिक दबाव। समृद्ध देश अकसर समूह में विकास करते हैं- युद्ध के बाद का यूरोप, नॉर्डिक देश या आसियान इसका उदाहरण हैं। कारण, पड़ोस में स्थिरता से स्थिर सीमाएं बनती हैं, जिससे सरकारें व्यापार, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास पर ध्यान दे पाती हैं। जबकि अशांति से भरा पड़ोस हमेशा एक बाधा साबित होता है।
भारत को यह बात हाल के कड़वे अनुभवों से समझ में आ रही है। तो भारत को क्या करना चाहिए? फिलहाल तो स्थिति पर नजर रखे हुए है। अमेरिका के उलट, भारत अपने पड़ोसियों की घरेलू राजनीति में दखल नहीं देता। लेकिन यह उसकी उदासीनता नहीं है। जब भी जरूरत पड़ी है, भारत ने पड़ोसियों की मदद की है। हमने पूर्वी पाकिस्तान को आजादी दिलाने के लिए सैन्य हस्तक्षेप किया।
नेपाल में संविधान परिवर्तन के दौरान हमने सुझाव दिए। श्रीलंका के आर्थिक संकट के समय अरबों डॉलर की मदद दी। नेपाल में बढ़ती अराजकता के चलते भारत के लिए तीन प्राथमिकताएं सामने आ रही हैं। पहली, रिफ्यूजियों की घुसपैठ रोकना। दूसरी, नेपाल की स्थिरता के लिए मदद करना। और तीसरी, लोकतांत्रिक मजबूती को बढ़ावा देना। अगर हम 1.4 अरब लोगों का देश होने के बावजूद सफल लोकतंत्र बने रह सकते हैं, तो हमारे छोटे पड़ोसी देश ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
पिछले तीन सालों में ही हमारे तीन पड़ोसी देश- श्रीलंका, बांग्लादेश और अब नेपाल- व्यापक प्रदर्शनों के दबाव में राजनीतिक सिस्टम के ढहने के गवाह बने हैं। इनकी कहानियां अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन नतीजा एक ही है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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