Navneet Gurjar’s column – Leave the boatmen, cross the river by swimming! | नवनीत गुर्जर का कॉलम: मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो!

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4 घंटे पहले
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नवनीत गुर्जर
“तूफानों से आंख मिलाओ / सैलाबों पर वार करो / मल्लाहों का चक्कर छोड़ो / तैर के दरिया पार करो।’ राहत इंदौरी साहब के इस शेर को ही शायद ध्येय मानकर नेपाल के युवाओं ने मात्र चौबीस घंटों में सत्ता पलट दी। पहले श्रीलंका और बांग्लादेश। अब नेपाल। गुस्सा हर जगह एक जैसा था। देश कोई भी हो, सत्ताधीशों को यह समझ लेना चाहिए कि जनता का गुस्सा पल भर में कुछ भी कर सकता है।
बांग्लादेश में जब विद्रोह हुआ तो नेपाल खुश था कि उसके यहां ऐसा कुछ नहीं होगा। दरअसल, जिनके अपने घर पर छत नहीं होती, वे दूसरों के पांव की जमीन नापते फिरते हैं। उनका यही भ्रम एक दिन उनकी दीवारें भी गिरा देता है।
जिस तरह सोने में सुगंध नहीं होती, गन्ने में फूल नहीं होते और चंदन में फल नहीं होते- उसी तरह जनता-जनार्दन की लाठी में भी आवाज नहीं होती। वास्तविकता यह है कि आजादी के बाद भारत में जितना विकास हुआ है, पड़ोसी-छोटे देश वह कर नहीं पाए।
इन पड़ोसी देशों में विकास के नाम पर केवल सत्ताधीशों के घर भरते गए। सत्ता का स्थायित्व भी इन देशों में या तो न के बराबर रहा या एक ही सत्ताधीश ने इतने लम्बे समय तक राज किया कि एक समय पर लोगों का गुस्सा तूफान बनकर टूट पड़ा।
ये बात अलहदा है कि भारत में भी गांवों की हालत आज तक उस तरह नहीं सुधर पाई, जिस तरह की अपेक्षा रही होगी। वर्षों से चुनाव पर चुनाव होते जा रहे हैं। कोई जीत रहा है। कोई हार रहा है। लेकिन फणीश्वर नाथ रेणु के मैला आंचल से श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी तक गांव की हालत अभी भी वैसी ही है।
शहरों में जरूर विकास की आंधी चली और निश्चित तौर पर भरपूर विकास हुआ भी है, लेकिन इस विकास और नई अर्थव्यवस्था ने शहरों के बाजारों को चुम्बक और आदमी को लोहा बनाकर रख दिया है। बाजार लहलहा रहे हैं।
लोगों को आकर्षित भी कर रहे हैं लेकिन लोग भावनाशून्य हो गए हैं। मोबाइल की इस दुनिया ने ई-सम्पर्क का दायरा तो बढ़ाया, लेकिन मेल-जोल, रूठना-मनाना, गप-शप करना, सब इतना सीमित हो गया कि आदमी से आदमी का मिलना दूभर हो गया है।
किसी के पास वक्त नहीं है। सच यह है कि आप मोबाइल खरीद सकते हैं लेकिन रिश्ते नहीं। दोस्त भी नहीं। समय तो खरीदा ही नहीं जा सकता, जो मोबाइल और रील्स देखने में बुरी तरह खर्च होता जा रहा है। बहरहाल, देश कोई भी हो, सत्ताधीशों को ठहरकर ये सोचना ही होगा कि वे लोगों के गुस्से को किस तरह शांत करके रखें।
किस तरह की सुविधाएं उन्हें दे सकते हैं? किस तरह का विकास उनके क्षेत्र में कर सकते हैं, जिससे उनका जीवन आसान हो सके। यह बात समग्र विकास की है। मुफ्त की रेवड़ियों से कुछ नहीं होने वाला है। क्योंकि ये मुफ्त की रेवड़ियां एक तरह से चुनाव जीतने का उपक्रम भर हैं… और कुछ नहीं।
कुछ भी नहीं। दरअसल, भारत में सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रहे चुनाव-खर्च ने पूरी व्यवस्था को, पूरे ढांचे को ही तहस-नहस कर दिया है। इसे कम करने का कोई मैकेनिज्म नेताओं को बनाना चाहिए। गढ़ना चाहिए।
एक जमाना था, जब पं. द्वारका प्रसाद मिश्र का निर्वाचन इसलिए रद्द कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने चुनाव में सीमा से एक रुपया ज्यादा खर्च कर दिया था! अब ऐसा नहीं होता। प्रत्याशी कोई भी हो, अनाप-शनाप खर्च किया जाता है।
पैसा पानी की तरह बहाया जाता है, लेकिन चुनाव आयोग को सीमा के भीतर का हिसाब थमा दिया जाता है। आयोग भी उससे संतुष्ट होकर बैठ जाता है। धरातल पर जांचने-परखने की कोई विधि नहीं है। है भी तो कोई यह जेहमत उठाना नहीं चाहता। आज-कल में बिहार में भी यही होने वाला है।
एक तरफ गंगा मैया में पानी बहेगा और दूसरी तरफ बिहार की धरती पर पैसों की बाढ़ आएगी। इस बाढ़ में कई लोग नहाएंगे और कहीं ज्यादा लोग बह जाएंगे। बिहार के आमजन की हालत तो गुलजार साहब द्वारा संग्रहित किताब की यह कविता बखूबी बयां करती है :
“गंगा मैया आई थीं / मेहमान बनकर / कुटिया में रहकर गईं / मायके आई लड़की की तरह / चारों दीवारों पर नाचीं / खाली हाथ अब जातीं कैसे? खैर से, पत्नी बची है / दीवार चूरा हो गई / चूल्हा बुझ गया / जो था, नहीं था, सब गया! / परसाद में पलकों के नीचे / चार कतरे रख गई है पानी के!’
जिनके अपने घर पर छत नहीं होती, वे दूसरों के पांव की जमीन नापते फिरते हैं। उनका यही भ्रम एक दिन उनकी दीवारें भी गिरा देता है। जैसे सोने में सुगंध नहीं होती, गन्ने में फूल नहीं होते और चंदन में फल नहीं होते- उसी तरह जनता-जनार्दन की लाठी में भी आवाज नहीं होती।
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