N. Raghuraman’s column – If you heat raw clay, it can become Kundan | एन. रघुरामन का कॉलम: कच्ची मिट्टी को तपाएंगे तो वो कुंदन बन सकती हैं

2 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
याद करें 1980 और 90 के दशक के उन दिनों को, जब हम सभी साप्ताहिक धारावाहिक देखने किसी और के घर जाया करते थे। अगर एक हफ्ते का एपिसोड छूट जाता तो अक्सर हमें बुरा लगता, लेकिन हम चुपचाप रहते। लेकिन कल्पना करें कि तब क्या होगा, यदि हमारे ही परिवार के सदस्य टेलीविजन पर हों और हम उन्हें ना देख पाएं। या फिर, जब हमारे जानकार लोग स्क्रीन पर हों और बिजली चली जाए।
कुछ ऐसा ही एहसास उस पूरे परिवार को हुआ, जब उनके चार भाई-बहनों में सबसे छोटी बहन घर से मीलों दूर वास्तव में लड़ रही थी। हां, वह सचमुच लड़ ही रही थी। जब उसने नॉर्थ-वेस्ट इंग्लैंड के लिवरपूल में विश्व बॉक्सिंग चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता, तो यह ना केवल मीनाक्षी हुड्डा की व्यक्तिगत जीत थी, बल्कि उस पूरे परिवार- जिसके पास टीवी तक नहीं था, और गांव के लिए एक उत्सव था। इस ऐतिहासिक जीत के बाद जब आयरिश सागर की हवा मीनाक्षी के पसीने सुखा रही थी, तब हरियाणा में रोहतक जिले के रुड़की गांव की तंग गली में स्थित साधारण-से घर से उठी मिठाई की सुगंध शायद मीनाक्षी तक पहुंच गई होगी।
48 किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण जीतने वाली मीनाक्षी हुड्डा के माता-पिता श्रीकृष्ण हुड्डा और सुनीता के विचार हमेशा विरोधाभासी रहे। शुरू में श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि मीनाक्षी बॉक्सिंग करें, लेकिन मीनाक्षी की मां और आंटी उनके साथ मजबूती से खड़ी थीं। 12 वर्ष की उम्र में मीनाक्षी चुपके से स्थानीय स्टेडियम में बच्चों की मुक्केबाजी देखने जाती थीं। तभी उन्हें बॉक्सिंग से लगाव हो गया।
धीरे-धीरे जिज्ञासा जुनून में बदल गई। उनकी मां बताती हैं कि ‘वह हमें तो नहीं बताती थी, लेकिन चुपके से स्टेडियम में बॉक्सिंग देखने जाती थी।’ यहीं उस सफर की शुरुआत हुई, जो मीनाक्षी को ग्रामीण रिंग में उधार के दस्तानों से लेकर वैश्विक मंच तक ले गया। उनकी मां और आंटी हर दिन उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती रहीं।
हुड्डा परिवार के पास आज भी टेलीविजन नहीं है। उन्होंने अपनी छोटी-सी बचत मीनाक्षी के सपने पूरे करने में लगा दी। इसीलिए, उनके बड़े भाई ने पड़ोसी के टीवी पर मुकाबला देखा, जबकि मां ने मीनाक्षी का हर पंच मोबाइल पर देखा। शनिवार देर रात जब रेफरी ने विजेता के तौर पर मीनाक्षी का हाथ उठाया तो न केवल उस घर में, बल्कि पूरी गली और पूरे रुड़की में जश्न शुरू हो गया। गांव भर में उठते खुशी के जयकारे कोई भी सुन सकता था।
दूसरा मामला एक ऑटोरिक्शा चालक के बेटे राहुल घुमरे का है, जिन्होंने अपनी योग्यता से नीट परीक्षा पास कर पुणे के अंबाजोगाई स्थित सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया। दो दशकों से अधिक समय तक उनके पिता तात्याभाऊ ने पुणे में ऑटोरिक्शा चलाकर परिवार का भरण-पोषण किया।
उन्होंने अपने दोनों बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए दिन–रात मेहनत की। लेकिन परिवार लाखों रुपए की कोचिंग फीस वहन नहीं कर पाया। फिर अजिंक्य रिक्शा एसोसिएशन ने सहायता की, जिसके वे सदस्य थे। एसोसिएशन के अध्यक्ष नितिन भुजबल ने स्थानीय मोशन क्लासेस में फीस माफ करवाई।
भुजबल ने कहा कि ‘राहुल की सफलता ने उनके परिवार, समुदाय और ऐसे बहुत लोगों को गर्व का अनुभव कराया है, जो उनकी यात्रा को इस प्रमाण के तौर पर देखते हैं कि इरादे पक्के हों तो आर्थिक और सामाजिक बाधाओं को पार किया जा सकता है। हमें खुशी है कि हमने सही व्यक्ति को चुना।’
इरादों की दृढ़ता, परिवार का बलिदान और समय पर मिली सहायता ने मीनाक्षी और राहुल को आज इस मुकाम पर पहुंचाया। आज कोई मीनाक्षी की फिटनेस व अनुशासन और राहुल के समर्पण को खारिज नहीं कर सकता, जिसके कारण यह संभव हुआ।
फंडा यह है कि चाहे कोई घरवाला हो या बाहर का, किसी को तो अपरिष्कृत प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देना ही होगा। क्योंकि ये प्रतिभाएं किसी ना किसी रूप में हमेशा स्वर्ण जीतने में सफल होंगी।
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