Rashmi Bansal’s column – One day golden memories will accompany you, collect them in the present | रश्मि बंसल का कॉलम: एक दिन सुनहरी यादें साथ देंगी, उन्हें वर्तमान में इकट्ठा कीजिए

- Hindi News
- Opinion
- Rashmi Bansal’s Column One Day Golden Memories Will Accompany You, Collect Them In The Present
12 घंटे पहले
- कॉपी लिंक

रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर
मेरे पिताजी एक हफ्ते तक अस्पताल में एडमिट थे। दो-चार दिन सर्दी-बुखार के बाद उल्टी हुई, बहुत कमजोर हो गए। पता चला डेंगू हो गया है, साथ में चेस्ट इन्फेक्शन भी। डॉक्टर, दवाई, सुई-सलाइन का सिलसिला। इतने वीक हो गए कि चम्मच से जूस पिलाने की नौबत आ गई।
यह करते हुए ख्याल आया कि इसी को कहते हैं- सर्कल ऑफ लाइफ। कभी उन्होंने मुझे चम्मच से खिलाया होगा, आज मैं कर रही हूं। वैसे जिस प्यार और परिश्रम से मां-बाप हमें पाल-पोसकर बड़ा करते हैं, उसका 1% भी हम उन्हें लौटा नहीं सकते। लेकिन सेवा करने का छोटा-सा भी मौका मिले, तो अपने को धन्य समझिए। सेवा ऐसी चीज है, जिसके लिए कोई सर्टिफिकेट नहीं मिलता। इसीलिए आजकल सेवा करने से हम कतराते हैं। क्योंकि जिस चीज में कोई फायदा नहीं, उसे क्यों ही करना?
और हां, सेवा मुश्किल है, क्योंकि अपना स्वार्थ, अपना यथार्थ साइड में रखकर किसी और की ओर ध्यान लगाना है। सेवा में दिमाग का नहीं, देह का इस्तेमाल होता है। और ऐसा काम हमें सुहाता नहीं। इसलिए अगर हम सक्षम हैं तो इसे आउटसोर्स कर देते हैं कि चलो एक हेल्पर रख लिया, वो करेगा।
मैं भी इस स्थिति में हूं। मुझमें उस तरह की सेवा की क्षमता नहीं, जिसकी उन्हें जरूरत है। बात यह है कि सेवा में भावनात्मक श्रम भी लगता है। अपने मां-बाप को असहाय देखकर बहुत दु:ख होता है। और मन में खयाल आता है- एक दिन क्या मेरे साथ भी ऐसा होगा?
खैर, इस सवाल का कोई जवाब है नहीं। मेरे ससुर जी का देहांत हुआ था 101 की उम्र में। 90 की दहाई में भी उन्हें कोई खास परेशानी नहीं थी। 92 तक अपनी फैक्ट्री में बैठते थे। वहीं मेरे पिताजी को 70 के बाद ही पार्किंसन की बीमारी हो गई, जिसका कोई इलाज नहीं।
रोज सोशल मीडिया पर हमें लोग याद दिलाते हैं- बचत कीजिए, इन्वेस्ट कीजिए। बुढ़ापे में काम आएगा। पर कल किसने देखा है। आप जल्दी चले जाओ तो? अगर लंबी उम्र पा भी लिए तो बुढ़ापे में इस धन का करेंगे क्या? यह भी सोचने की बात है।
हां, कुछ जमा-पूंजी जरूरी है, ताकि आप किसी पर बोझ न बनें। लेकिन मेरी मम्मी को अब देखती हूं- उनका कोई शौक बचा नहीं। तो फिर लगता है कि अगले दस-पंद्रह साल में मुझे अपनी इच्छाएं पूरी कर लेनी चाहिए। क्योंकि अंतकाल में संन्यास नहीं तो वानप्रस्थ आश्रम वाली मनोस्थिति हो ही जाएगी।
पुराने जमाने में वृद्धाश्रम में वो लोग जाते थे, जिनके बच्चे उन्हें घर से निकाल देते थे। लेकिन अब सोच बदल रही है। मेरे जैसे लोगों का कहना है, ओल्ड एज में अपना घर संभालने से बेहतर है कि हम एक रिटायरमेंट कम्युनिटी में चले जाएं।
यह एक नया कॉन्सेप्ट है, जहां आपका अपना एक छोटा-सा फ्लैट होगा और कुछ सुविधाएं भी- जैसे कि डाइनिंग हॉल, हाउसकीपिंग, मेडिकल इत्यादि। आपको अपने जैसों की कंपनी मिलेगी, थोड़ी चहल-पहल होगी तो मन लगा रहेगा। खैर, यह सब उन्हीं के लिए वाजिब है, जिनको पैसों की कमी नहीं। लेकिन चलो, उनके लिए उपाय तो है।
आजकल ज्यादातर अच्छे घरों के बच्चे विदेश में बस गए हैं। तो मुमकिन है कि वो अपने मां-बाप को आखिरी बार देखेंगे-सुनेंगे वीडियो कॉल पर ही। आखिरी वक्त पर अस्पताल में शायद हम देखेंगे चेहरा किसी नर्स का। एआई के जमाने में भी यह वो प्रोफेशन है, जो हमेशा मनुष्य के हाथों में रहेगा।
दुनिया भर में रिसर्च हो रही है- किस तरह हम कैंसर से मुक्त हो सकते हैं और अन्य बीमारियों से भी। पर दूसरी तरफ कुछ देश मार-काट पर तुले हुए हैं। जो पैसा हम मिसाइल खरीदने में और एक-दूसरे पर फेंकने में गंवाते हैं, उसी को अगर हम स्वास्थ्य में इन्वेस्ट करते तो आज पार्किंसन का भी इलाज होता।
शायद यह सब पढ़कर आप निराश हो गए हों। माफी चाहती हूं, दु:खी मन से लिख रही हूं। मेरी एक ही सलाह है- जब तक स्वास्थ्य है, आस है। जीवन का रस निचोड़िए, बाकी चिंता छोड़िए। एक दिन सुनहरी यादें साथ देंगी, उन्हें वर्तमान में इकट्ठा कीजिए। सुख के समय में सुख भोगें, उसे अमृत समझकर पीजिए। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
Source link