Tuesday 14/ 10/ 2025 

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Rajdeep Sardesai’s column: The shoe thrown at the CJI was aimed at the justice system | राजदीप सरदेसाई का कॉलम: सीजेआई पर फेंके जूते का निशाना न्याय व्यवस्था थी

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6 घंटे पहले

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राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार - Dainik Bhaskar

राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार

एक सवाल है। अगर सीजेआई पर कोर्ट में जूता फेंकने वाले वकील का नाम राकेश किशोर के बजाय रहीम खान होता तो क्या होता? क्या उसे बिना सजा छोड़ा जाता? या उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, जन सुरक्षा कानून (अगर वो कश्मीरी मुसलमान होता तो) या गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून के तहत आरोप लगाए जाते? यहां मेरा मकसद किसी को भड़काना नहीं, बल्कि उस इको-सिस्टम को उजागर है, जिसमें लोगों की धारणाएं न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं।

पिछले महीने सीजेआई गवई ने खजुराहो के एक मंदिर में भगवान विष्णु की क्षतिग्रस्त मूर्ति के पुनर्निर्माण की याचिका खारिज कर दी थी। इसे जनहित याचिका के बजाय ‘प्रचार-हित याचिका’ बताते हुए गवई ने कहा था कि याचिकाकर्ता को याचिका दायर करने के बजाय स्वयं भगवान से ही कुछ करने के लिए कहना चाहिए। यहां पर जज का यह व्यंग्यात्मक लहजा यकीनन गैरजरूरी था। लेकिन ध्यान रखें कि ये महज टिप्पणियां थीं। याचिका तो इसलिए खारिज की गई, क्योंकि कोर्ट ने कहा कि इस पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण निर्णय करेगा।

लेकिन सोशल मीडिया पर बैठी ‘हथियारबंद’ सेना के पास फैसले के तर्क पढ़ने का समय कहां था? उन्माद फैलाने के लिए जस्टिस गवई की टिप्पणी ही काफी थी। सुनियोजित आक्रोश ने सीजेआई को यह सफाई देने को मजबूर कर दिया कि वे सभी धर्मों में आस्था रखते हैं, सभी प्रकार के धर्मस्थलों में जाते हैं और ‘सच्ची धर्मनिरपेक्षता’ में उनका भरोसा है। लेकिन यह स्पष्टीकरण आक्रोशित भीड़ को शांत करने के लिए काफी नहीं था।

मीम्स, हैशटैग और यूट्यूब वीडियो के जरिए गवई की निंदा चलती रही। इसी तनावपूर्ण माहौल में एक 71 वर्षीय वकील ने गवई पर जूता फेंकने का फैसला कर लिया। ‘सनातन धर्म का अपमान, नहीं सहेगा हिंदुस्तान’। ऐसी किसी घटना पर दिल्ली पुलिस स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करती, लेकिन उसने हाथ बांधे रखे। गवई ने बड़ी गरिमा के साथ इस मामले में मुकदमा दर्ज कराने से इनकार कर दिया, लेकिन उन वकील ने कहा- ‘मैं फिर से ऐसा करूंगा’। मानो, उन्हें भरोसा हो कि अदालत की स्पष्ट अवमानना के बावजूद कानून उन्हें छू भी नहीं सकता।

हमें इस पर अचम्भा भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने भी इस मामले पर चुप्पी साधे रखी। प्रधानमंत्री को यह ट्वीट करने में आठ घंटे लगे कि जूता फेंकना ‘एक निंदनीय कार्य है, जिसने हर भारतीय को नाराज किया है।’

प्रधानमंत्री के कड़े शब्द स्वागतयोग्य हैं, लेकिन याद करें कि जब 2019 में भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने गोडसे का महिमामंडन किया था, तब भी पीएम ने कहा था कि वे प्रज्ञा को कभी भी पूरी तरह माफ नहीं कर पाएंगे। लेकिन साध्वी के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं की गई।

एडवोकेट किशोर भी ऐसी ही विचारधारा का हिस्सा हैं, जहां कोई भी खुद को सनातन का ‘रक्षक’ मान बैठता है। अंतर बस इतना है कि गोडसे की तुलना में किशोर ने गुस्सा निकालने के लिए एक अपेक्षाकृत निरापद हथियार को चुना। लेकिन दोनों ही मामलों में निहित असहिष्णुता की मानसिकता से इनकार नहीं किया जा सकता।

कथित तौर पर ‘हिंदुओं की भावनाओं को ठेस’ पहुंचाने वाला कोई भी कृत्य हिंसक प्रतिक्रिया के लिए काफी है। ये लोग उन इस्लामिस्टों से कितने अलग हैं, जो भावनाएं आहत होने का दावा करते हुए ‘सर तन से जुदा’ का नारा लगाते हैं? आहत भावनाओं के गणतंत्र में हिंसा का सामान्यीकरण क्यों किया जाता है?

इस मामले का एक और पहलू परेशान करने वाला है। जस्टिस गवई सीजेआई के उच्च संवैधानिक पद पर आसीन हुए दलित वर्ग के दूसरे व्यक्ति हैं। उनके पिता आरएस गवई रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया आंदोलन में एक प्रमुख चेहरा थे। जस्टिस गवई का इस पद तक पहुंचना किसी आम्बेडकरवादी के लिए एक ऐसे समाज का सपना पूरा होने जैसा है, जिसमें उत्पीड़ित जातियों के लिए समान अवसर उपलब्ध हों।

दलित आंदोलन वाले परिवार की पृष्ठभूमि से होने के कारण जस्टिस गवई के लिए ऐसे सुनियोजित हमलों का जोखिम और बढ़ जाता है। एक साल पहले जब जस्टिस गवई ने ‘बुलडोजर न्याय’ के खिलाफ एक आदेश देते हुए इसे असंवैधानिक बताया था, तब भी वे दक्षिणपंथियों के ऑनलाइन दुष्प्रचार अभियान के शिकार बने थे।

इसीलिए जूता फेंकने की घटना को वैसे ही देखना चाहिए, जैसी वह है- एक धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक ढांचे में किसी धर्म की सर्वोच्चता थोपने की कोशिश। उसका निशाना जस्टिस गवई नहीं थे, उसका लक्ष्य तार्किक और निष्पक्ष समझी जाने वाली न्याय व्यवस्था को कमजोर करना था।

जूता फेंकने की घटना केवल जस्टिस गवई ही निशाने पर नहीं थे। उसका लक्ष्य तार्किक और निष्पक्ष समझी जाने वाली न्यायिक व्यवस्था को कमजोर करना था। आहत भावनाओं के गणतंत्र में हिंसा का सामान्यीकरण क्यों किया जाता है?

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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