जब वंदेमातरम के लिए माफी ना मांगने पर स्कूल से निकाल दिए गए थे हेडगेवार – dr hedgewar rusticated school vandematram 100 years of rss histrory ntcppl

बंग-भंग आंदोलन के चलते देश भर के युवाओं के लिए ‘वंदेमातरम’ का उदघोष मानो फैशन बन गया था. उस वक्त एमपी के बालाघाट का रामपायली भी मध्य प्रांत में ही था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार के एक रिश्तेदार मोरेश्वर उर्फ आबाजी वहीं रहते थे. माता-पिता की प्लेग से मौत के बाद किशोर केशव अक्सर वहां चले जाते थे. सो वहां के हमउम्र लड़कों से दोस्ती हो गई.
वहां दशहरे पर नगर की सीमा पार करने की परंपरा थी. सैकड़ों लोग इकट्ठे होते थे. बड़ा मेला लगता था. ये 1907 या 1908 की बात है. केशव ने स्थानीय युवाओं को जुटाया और राजी किया कि इस बार इस मेले में वंदेमातरम और स्वदेशी की धूम मचा देंगे. बैंड पर नाचते-गाते सब पहुंचे और सबने वंदेमातरम के जमकर नारे लगाए. केशव ने एक आक्रामक भाषण दिया और चले आए. बाद में उनके दो साथियों को स्कूल से निकाल दिया गया. नागपुर से अंग्रेज वकील आर्मस्ट्रोंग आया और दोनों पर देशद्रोह का केस लगा दिया. पास के जिले के वकील पुरुषोत्तम देव ने डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट को बच्चों की उम्र का हवाला दिया. मातृभूमि के गीत गाने में क्या गैरकानूनी है, जैसे तर्क दिए, तब जाकर उन पर से सारे आरोप हटाए गए. लेकिन केशव को ये जीत जैसा लगा.
अंग्रेजी सरकार अब सतर्क हो गई और मध्य प्रांत के स्कूलों में एक सर्कुलर जारी किया गया कि कोई भी छात्र किसी राजनीतिक बैठक या सभा या विरोध प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लेगा और ना ही वंदेमातरम गाएगा. ये बात केशव और उनके दोस्तों को चुभ गई. तब ये सब नागपुर के नील सिटी हाईस्कूल में पढ़ रहे थे. तय हुआ कि जैसे ही कोई बाहरी व्यक्ति या अधिकारी स्कूल में आएगा, जिस क्लास में जाएगा वहां वंदेमातरम के नारे लगेंगे. स्कूल के सभी अध्यापक राष्ट्रवादी ही थे, लेकिन यहां अंग्रेजी सरकार के दबाव का मामला था.
सर्कुलर के लगातार उल्लंघन की खबरें सरकार के जासूस उसे भेज रहे थे. सरकार ने स्कूलों में जांच अधिकारी भेजने का फैसला किया. फैसला नील हाईस्कूल के बच्चे भी कर ही चुके थे. उन दिनों केशव के मुरीदों में वहां के किशोर ही नहीं, अध्यापक भी थे. उस दिन खुद प्रिंसिपल जर्नादन ओक जांच अधिकारी के साथ क्लास के दौरे पर आए. जैसे ही घुसे, पूरी क्लास ने अभिवादन किया वंदे…मातरम. दोनों के चेहरे देखने लायक थे. प्रिंसिपल ने फौरन उस अधिकारी के साथ दूसरी क्लास का रुख किया. वहां भी यही हुआ. जांच अधिकारी प्रिंसिपल पर गुस्सा होता हुआ वहां से चला गया.
उसके बाद स्कूल के प्रबंधक को नोटिस मिला, केशव की पूरी क्लास को निलंबित कर दिया गया. बच्चों को डॉ बीएस मुंजे आदि नेताओं का साथ मिला. स्कूल में हड़ताल हो गई. इसमें बच्चों के माता-पिता भी शामिल हो गए. डेढ़ महीने तक बवाल होता रहा. समझौते के प्रयास भी हुए. बच्चों के माता-पिता भी पढ़ाई के नुकसान से चिंतित थे. बावजूद इसके किसी ने भी केशव का नाम नहीं लिया. आखिरकार समझौते का फॉर्मूला ये निकला कि बच्चों को स्कूल में ये पूछा जाएगा कि क्या वंदेमातरम का नारा लगाना गलत था? तो बच्चे को केवल हां में सिर हिलाना था. सभी बच्चों ने ऐसा किया, केवल दो बच्चो को छोड़कर. एक केशव और दूसरे का नाम अब किसी को पता नहीं है. दोनों को ही स्कूल से निकाल दिया गया. केशव ने बस इतना कहा, “वंदेमातरम भारत माता का महानतम वरदान है, ये पाप नहीं है. अगर ये अपराध है तो मैं इसे बार-बार करूंगा”.
डॉ मुंजे बने केशव के गाइड
केशव की इस हिम्मत के चर्चे इतने ज्यादा हो गए, कि कांग्रेस नेता और क्रांतिकारियों के हितैषी डॉ बीएस मुंजे जो उनसे केवल प्रभावित थे, अब प्रशंसक हो गए. उनकी मदद से केशव ने राष्ट्रवादियों द्वारा यवतमाल में खोले गए एक स्कूल ‘विद्यागृह’ में दाखिला लिया. उनकी मार्कशीट पर रासबिहारी बोस जैसे क्रांतिकारी के हस्ताक्षर थे. उसे पास करने के बाद मुंजे की ही मदद से वो नेशनल मेडिकल कॉलेज में डिग्री लेने कलकत्ता चले गए. वहां वो अनुशीलन समिति से जुड़े और उनकी कोर कमेटी में आ गए. उनको दूरदराज के क्रांतिकारियों को हथियार आदि पहुंचाने का काम दिया गया.
कॉलेज में उनकी मेडिकल डिग्री पर सवाल उठे तो केशव और उनके साथियों ने आंदोलन किया. उस समय के बड़े कांग्रेस नेता सुरेन्द्र नाथ बनर्जी इसमें साथ देने आए. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पिता आशुतोष मुखर्जी ने भी केशव के इस आंदोलन को समर्थन दिया. अंग्रेजी सरकार झुकी और कहा कि यहां से डिग्री लेने वालों को एक छोटी सी परीक्षा और देनी होगी. हालांकि वो आसान थी, फिर भी उनके सारे सहपाठियों ने दी लेकिन केशव ने नहीं. कहा, मैं अपनी डिग्री पर अंग्रेजी अनुमति की मोहर नहीं लगवाऊंगा.
जब दहेज में आया 5000 रुपये का ‘ऑफर’
हेडगेवार ने तय कर लिया था कि उनको मेडिकल प्रेक्टिस करनी ही नहीं है. नागपुर लौटकर आए तो उनके लिए तमाम रिश्ते आने लगे. उन्होंने रामपायली वाले रिश्तेदार का पता सबको दे दिया. लोग उस वक्त पांच हजार तक का दहेज देने की बात कर रहे थे. उस वक्त ये बड़ी रकम हुआ करती थी. उनके रिश्तेदार भी रिश्तेवालों से मिल-मिलकर परेशान हो गए. आखिरकार केशव को कहना ही पड़ा कि मैं मातृभूमि की सेवा में रहूंगा, विवाह नहीं करूंगा. वो दहेज इसलिए देना चाहते हैं कि सोच रहे हैं मैं डॉक्टर बनूंगा, लेकिन मैं प्रैक्टिस भी नहीं करूंगा.
उनकी जिंदगी में राजनीतिक विचारों का पुंज लेकर आए थे उस वक्त विदर्भ के कद्दावर कांग्रेस नेता डॉ बीएस मुंजे. मुंजे खुद लोकमान्य तिलक के अनुयायी थे, लेकिन तिलक को 1907 में जिस तरह कांग्रेस अध्यक्ष बनने से रोक दिया गया, और फिर 6 साल के लिए मांडले जेल भेज दिया गया, उसके चलते वो कांग्रेस से भी अंदर से नाराज थे. इससे पहले 1904 में वो केशव से शिवराम गुरु के अखाड़े में मिले थे, जो उस वक्त राष्ट्रवादियों का सबसे बड़ा अड्डा था. उनकी तरफ से मिले स्नेह के चलते केशव के मन में उनके लिए आदर बढ़ता चला गया. केशव भी लोकमान्य तिलक को प्रेरणास्रोत मानते थे. 1902 में नागपुर में उनके कार्यक्रम में उन्हें सुन चुके थे.
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मुंजे भी युवाओं पर केशव की पकड़ देखकर प्रभावित हुए और बंग भंग आक्रोश के समय 1905 में ‘विद्यार्थी समाज’ नाम से संगठन बनाकर उसकी जिम्मेदारी केशव को दे दी. मुंजे ने उन्हें ‘तिलक पैसा फंड’ जुटाने के काम में भी लगाया. मुंजे उनकी लगन देखकर हैरान थे. उन्हीं दिनों केशव मुंजे के घर में बम बनाने की ट्रेनिंग भी ले रहे थे. पहला बम उन्होंने 1908 में रामपायली पुलिस स्टेशन पर फेंका था, जो पास के तालाब में गिर गया था. इतनी होशियारी से ये काम किया गया कि किसी को कोई सुबूत नहीं मिला, ना कोई गवाह. केशव साफ बच निकले थे.
इधर केशव अपना कोर्स कर वापस आ गए थे, उधर तिलक भी जेल से वापस आकर राजनीति में सक्रिय होने लगे थे. लेकिन केशव को उनके मित्र भाऊजी कावरे का साथ भा रहा था. दोनों डॉ मुंजे के निर्देशन में आसपास के जिलों में युवाओं को क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए जोड़ रहे थे. भाऊजी हर एक को नहीं लेते थे, बल्कि अपनी हैरतअंगेज परीक्षाओं से आजमाते थे. एक बार तीन लड़कों को उन्होंने 40 फुट ऊंचे कुएं में कूदने को कहा दो तो डर गए, लेकिन तीसरा कूद गया, उसे सुरक्षित लाने के लिए भाऊजी भी कूद गए. लेकिन उसकी हिम्मत उन्हें पसंद आई. एक और मित्र थे अन्ना खोटे, उन्होंने युवाओं को जोड़ने के लिए अपनी व्यायाम शाला शुरू की तो तीसरे मित्र दादा साहेब बख्शी का काम था खराब हो चुके हथियारों की रिपेयरिंग करना. इन सबकी मदद से करीब 150 युवा उनके साथ जुड़ चुके थे. वो नागपुर के निकट कामठी में आर्मी यूनिट से भी कुछ लोगों से सेकंड हैंड हथियार खरीदने लगे थे.
क्या तिलक ने मोड़ दी केशव के जीवन की राह?
भाऊजी और केशव ने देश के नाम पर अंग्रेजों का टैक्स उगाहने वाले मालगुजारों तक को अपने समूह में जोड़ लिया. उनके संगठन को राजाओं के संगठन की तरह नाम दिया गया ‘नरेन्द्र मंडल’. केशव अनुशीलन समिति जैसे बड़ा क्रांतिकारी संगठन विदर्भ की धरती पर खड़ा करना चाहते थे, लेकिन पहले विश्व युद्ध की शुरुआत होने के चलते अंग्रेज सरकार सख्ती बरत रही थी. मुंजे क्रांतिकारियों की मदद जरूर करते थे, लेकिन इतना बड़ा संगठन नहीं खड़ा करना चाहते थे. केशव इस बात को समझ गए थे और इसीलिए विचार बनाया कि क्यों ना लोकमान्य तिलक से चर्चा की जाए. डॉ मुंजे ने जब तिलक को इस बारे में लिखा तो वो भी फौरन तैयार हो गए और केशव को उनके पास ही भेजने को कहा ताकि कुछ दिन उनके घर में ही रह सकें. केशव उनके साथ कई दिन पुणे में रुके, कई बार भविष्य की रूपरेखा पर चर्चा भी हुई. लेकिन कभी भी विस्तार से ना तो डॉ हेडगेवार ने इस चर्चा के बारे में लिखा और ना तिलक ने ही, हां इस पुणे प्रवास के दौरान केशव शिवाजी महाराज के शिवनेरी किले में जरूर घूमने गए.
केशव ने कर ली थी 1917-18 में बड़ी क्रांति की तैयारी
नाना पालेकर द्वारा लिखित सुरुचि प्रकाशन की ‘मेन ऑफ द मिलेनिया: डॉ हेडगेवार’ में जिक्र मिलता है कि उन्हें यवतमाल के वामनराव धर्माधिकारी ने बताया कि केशव ने 1917-18 में विदेशी शासन के खिलाफ एक बड़ी क्रांति की तैयारी कर ली थी. केशव ने उन्हें पर्याप्त धन के साथ मार्मा गोवा भेजा था, जहां हथियारों से भरा एक शिप आने वाला था. वहां कोई श्रीमान पाटिल मिले, जिन्होंने दादासाहेब वैद्य के घर उन्हें ठहराया था. लेकिन वो शिप गोवा समुद्र तट कर नहीं पहुंच पाया, बाद में खबर मिली कि वो पकड़ा गया है. इससे पहले भी वो केशव के लिए गोवा से हथियार ला चुके थे. फिर बाद में केशव ने तिलक के साथ होमरूल लीग आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया. तिलक और मुंजे के चलते केशव के पूरे मध्य प्रांत में कई दौरे हुए और इसका सीधा लाभ ये मिला कि लोग अब उन्हें भी जानने लगे और उनके सीधे व मजबूत सम्पर्क बने. ये संक्रमण काल था, जब विश्व युद्ध के चलते अंग्रेजों की क्रांतिकारियों के खिलाफ सख्ती, तिलक के मांडले जेल से वापस आने के बाद राजनीति में सक्रिय होना जैसे कारक भी थे, जिनके चलते केशव की सोच पर असर डाला होगा कि वो अपने दो वरिष्ठों तिलक और मुंजे की ही तरह कांग्रेस से जुड़ें और ऐसे में नागपुर में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन की खबर ने उनके कदम कांग्रेस की तरफ मोड़ दिए. उससे पहले ही लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद शून्य को भरने के लिए मुंजे ने उन्हें अभियान में जोड़ा और फिर कांग्रेस की स्वागत समिति में दोनों को रखने से वो कांग्रेस में सक्रिय होते चले गए.
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