Thursday 16/ 10/ 2025 

Rashmi Bansal’s column: Do something for society beyond your family | रश्मि बंसल का कॉलम: अपने प​रिवार के अलावा इस समाज के लिए भी कुछ कीजिएदिवाली पार्टी में एक साथ दिखीं- अलाया और मानुषीबिहार SIR पर सुप्रीम कोर्ट में बोला चुनाव आयोग- 'याचिकाकर्ता चुनाव प्रक्रिया में रुकावट डालना चाहते हैं'Neeraj Kaushal’s column: Non-violent protests hold even greater potential for success | नीरज कौशल का कॉलम: अहिंसक विरोध से सफलता की गुंजाइश आज भी अधिकRohit और Kohli को Shastri ने दी सलाह!ब्राजील की रक्षा करेगा भारत का 'आकाश'! डिफेंस डील को लेकर अहम चर्चा, राजनाथ सिंह ने दी जानकारीNavneet Gurjar’s column: Bihar is in the electoral frenzy, and it’s not! | नवनीत गुर्जर का कॉलम: बिहार में चुनावी बहार! है भी, नहीं भी!संघ के 100 साल: संघ के पहले सरकार्यवाह बालाजी जो बन गए थे कम्युनिस्टों के ‘जॉन स्मिथ’ – sangh 100 years story first sar karyavah balaji huddar communist ideology ntcpplइस बार दिवाली होगी ग्रीन पटाखों वाली, SC ने तय किए हैं खास नियम, पटाखे जलाने से पहले पढ़ लें पूरी गाइडलाइंसPt. Vijayshankar Mehta – Men and women will have to adapt to the new normal | पं. विजयशंकर मेहता: स्त्री और पुरुष को न्यू नार्मल  के प्रति सहज होना पड़ेगा
देश

Navneet Gurjar’s column: Bihar is in the electoral frenzy, and it’s not! | नवनीत गुर्जर का कॉलम: बिहार में चुनावी बहार! है भी, नहीं भी!

  • Hindi News
  • Opinion
  • Navneet Gurjar’s Column: Bihar Is In The Electoral Frenzy, And It’s Not!

7 घंटे पहले

  • कॉपी लिंक
नवनीत गुर्जर - Dainik Bhaskar

नवनीत गुर्जर

बरसात, शीत और गर्मी, मुख्य रूप से हिंदुस्तान में तीन मौसम होते हैं, लेकिन वर्षों से यहां एक ही मौसम प्रभावी दिखाई दे रहा है- चुनावी मौसम! एक चुनाव गया, दूसरा आया। दूसरा गया, तीसरा आया।

हम थक चुके हैं इस चुनावी मौसम से जिसमें कोई हमें ही बरगलाए और हमें ही लूटकर सत्ता का सरताज बनजाए। फिर हमें पांच साल दिखे न दिखे! न हमें कोई फर्क पड़ता और न उन्हें, क्योंकि वे तो अपनी चमड़ी को इतनी मोटी कर चुके हैं कि कोई कुछ भी कहे, कितनी भी सुई चुभोए, कोई चुभन महसूस ही नहीं होती।

फर्क से याद आया- दल कोई भी हो, किसी में कोई फर्क नहीं! सब एक जैसे हैं! अंधे, बहरे और निखट्टू। न उन्हें कुछ देखना है, न उन्हें कुछ सुनना है… और करना तो कुछ है ही नहीं। चूंकि फिलहाल बिहार में चुनाव हैं, इसलिए यहां भी यही सब चल रहा है। कहने को बिहार में बहार है! लेकिन बहार है भी। नहीं भी।

बहार है इसलिए कि टिकटों की बहार में सब कुछ हरा ही हरा दिखाई दे रहा है। इन्हीं टिकटों की उदासीनता में जिनके खेत-खलिहान की हरियाली सूख चुकी है, वे दूसरे दलों में जा-जाकर टिकट की जुगत लगा रहे हैं। बहार नहीं है, इसलिए कि तमाम दलीय निष्ठाएं, राजनीतिक शुचिता और ईमानदारी बड़ी शान से गंगा मैया में बेखौफ बहाई जा रही है।

वैसे भी राजनीति के अपराधीकरण की बात करें तो इस मामले में बिहार का कोई मुकाबला नहीं। मीडिया में बड़ी खबरें बनती हैं- इतने टिकटों में से इतनी अपराधियों को, या आरोपियों को। बिहार में इस तरह की सनसनी की कोई जरूरत ही नहीं। यहां तो मीडिया को यह खबर छापनी चाहिए कि इतने ऐसे लोग भी चुनाव लड़ रहे हैं, जिन पर कोई आरोप नहीं है या जिन पर कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं हैं।

दरअसल, बिहार की सबसे बड़ी सहूलियत हैं गंगा मैया। यहां सबके पाप धुल जाते हैं। इन नेताओं के भी धुल जाते हैं। आगे भी यह प्रक्रिया जारी रहेगी, क्योंकि गंगा मैया तो अपार है। उसकी महिमा भी अपरम्पार है। लेकिन सवाल यह है कि आम आदमी, आम वोटर, गंगाजल उठाकर कब कसम खाएगा कि वो सच्चे व्यक्ति को ही वोट देगा। ईमानदार व्यक्ति को ही अपना प्रतिनिधि चुनेगा। गलत हाथों में सत्ता नहीं जाने देगा।

…और यह बात केवल बिहार के लिए या केवल उनके लिए नहीं है, जो गंगा किनारे रहते हैं। बल्कि देशभर के उन लोगों के लिए भी है, जो किसी न किसी रूप में अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए, अपनी सत्ता या सरकार चुनने के लिए वोट करते या डालते हैं।

क्योंकि सबकी शुद्धि का ठेका अकेली गंगा मैया ने ही तो लिया नहीं है! बाकी देश में, बाकी प्रदेशों में भी कोई न कोई जीवन दायिनी नदी तो बहती ही है! कहीं मां नर्मदा है, कहीं सतलुज, रावी और यमुना भी है। वही यमुना जो भगवान श्रीकृष्ण के बचपन की साक्षी है। वही यमुना जिसने बाल-गोपाल को निर्मल जल भी पिलाया और अपनी गोद में भी खिलाया।

अगर हम मतदाता इन जीवनदायिनी माताओं से भी कोई सीख नहीं लेना चाहते तो माफ कीजिए हमारा कल्याण कभी कोई नहीं कर सकता। कम से कम ये आपराधिक प्रवृत्ति वाले सांसद- विधायक तो नहीं ही कर सकते।

आजादी मिले इतने बरस हो चुके, लेकिन वोट देने की जो समझदारी हममें आनी थी, या आनी चाहिए, वो अब तक नहीं आ सकी। दरअसल, अपने कीमती या कहें अमूल्य वोट को किसी बहकावे में आकर पानी की तरह बहाने और पांच साल तक फिर अपने ही वोट की खातिर आंसू बहाने, पछताने का हमें शाप मिला है।

इसी शाप को ढो रहे हैं। जाने कितने वर्षों से। जाने कितने वर्षों तक। कोई उंगली उठाकर कहना नहीं चाहता कि हम अब उन्हीं दलों, उन्हीं नेताओं या प्रत्याशियों को ही वोट देंगे, जो ईमानदार हो, जो जनता की भलाई चाहें या जो राजनीतिक शुचिता के पैमाने पर खरे उतरते हों।

चार गाड़ियां लेकर, दस भोंपू बजाकर वे नेता पांच साल में एक बार हमारे गांव, शहर या मोहल्ले में आते हैं और हम उनके लिए पलक-पांवड़े बिछाकर खड़े हो जाते हैं! क्यों? क्यों हम उनसे तीखे सवाल नहीं करते?

क्यों हमारी नागरिक जिम्मेदारी तब उनके आगे भीगी बिल्ली बनकर रह जाती है? आखिर कोई एक कारण तो हो! कोई एक वजह तो हो? सही है, राजनीतिक चकाचौंध की रौशनी इतनी तेज होती है कि आम आदमी को उसके आगे कुछ सूझता नहीं है।

लेकिन अपनी आंख का तेज भी तो कोई चीज है, जिसमें सही और गलत को अच्छी तरह परखने की शक्ति होती है।

उसका इस्तेमाल आखिर हम कब करेंगे? अब तक क्यों नहीं किया?

कम से कम अब तो करो अपनी शक्ति का इस्तेमाल!

अपने अमूल्य वोट को गंवा देने का शाप हमें मिला है अपने अमूल्य वोट को किसी बहकावे में आकर पानी की तरह बहाने और पांच साल तक फिर अपने ही वोट की खातिर आंसू बहाने, पछताने का हमें शाप मिला है। इसी शाप को ढो रहे हैं। जाने कितने वर्षों से। जाने कितने वर्षों तक।

खबरें और भी हैं…

Source link

Check Also
Close



DEWATOGEL