Neeraj Kaushal’s column: Non-violent protests hold even greater potential for success | नीरज कौशल का कॉलम: अहिंसक विरोध से सफलता की गुंजाइश आज भी अधिक

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10 घंटे पहले
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नीरज कौशल, कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर
दुनिया इजराइल-गाजा युद्धविराम को भी भय और संशय के साथ देख रही है। क्या यह टिक पाएगा? कितने समय तक? मैं अकसर सोचती हूं कि अगर दोनों पक्ष गांधीवादी अहिंसा और सविनय अवज्ञा का रास्ता चुनते तो परिणाम क्या होता? इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष एक सदी से भी पुराना है। इसमें लाखों लोग मारे गए और विस्थापित हुए हैं। लेकिन यदि इनमें से कोई एक पक्ष अहिंसा का रास्ता चुनता तो क्या परिणाम बदतर होता?
यही सवाल दुनिया भर में चल रहे प्रमुख सशस्त्र संघर्षों और स्थानीय स्तर के विद्रोहों को लेकर किया जा सकता है। इनमें यूक्रेन, सूडान, म्यांमार, यमन, सीरिया और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो के युद्ध शामिल हैं। इनमें से कई युद्ध तो वर्षों से चल रहे हैं, जिनमें लाखों लोग मारे जा चुके हैं। इन लंबे टकरावों में भी अगर सशस्त्र संघर्ष के बजाय अहिंसक विरोध रहता, तो क्या कम कीमत कम चुकानी पड़ती?
शायद ऐसे सवालों को इन संघर्षों में शामिल संगठन या लोग बहुत सरलीकृत मानकर खारिज कर देंगे। वे कहेंगे कि हर युद्ध का एक जटिल ऐतिहासिक संदर्भ होता है, जिनके कारण हालात यहां तक पहुंचे। लेकिन वर्ष 1900 से लेकर अब तक के प्रदर्शनों के आंकड़े बताते हैं कि किसी हिंसक संघर्ष की तुलना में शांतिपूर्ण सविनय अवज्ञा के गांधीवादी रास्ते से सफलता की संभावना दोगुनी अधिक होती है!
द नॉन-वायलेंट एंड वायलेंट कैंपेन्स एंड आउटकम्स (एनएवीसीओ) डेटासेट ने 1900 से 2021 के बीच दुनिया भर के प्रमुख टकरावों की जानकारी एकत्र की है। 1900 से 2006 तक के डेटा के विश्लेषण में राजनीतिक वैज्ञानिक एरिका शेनोवेथ और मारिया स्टीफन ने पाया कि अहिंसक अभियानों की सफलता दर 53% रही है, जबकि हिंसक अभियानों की केवल 26% थी। एनएवीसीओ डेटा बताता है कि अहिंसक प्रतिरोध किसी तानाशाही के अंत के बाद स्थिर, शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक शासन की सम्भावना को बढ़ाता है। जबकि हिंसक विद्रोह में तानाशाही के नए रूपों के विकसित होने और जनता के दमन की आशंका ज्यादा रहती है।
आलोचक कह सकते हैं कि इन आंकड़ों से कुछ भी साबित नहीं होता। क्योंकि प्रदर्शनकारी वही रास्ता चुनते हैं, जो उन्हें सबसे प्रभावी लगता है। अगर उन्हें लगता है कि अहिंसक तरीके अधिक प्रभावी होंगे, तो वे अहिंसक तरीके अपनाएंगे। और अगर उन्हें लगता है कि अब हिंसा ही एकमात्र रास्ता है, तो वे हिंसक तरीके चुनेंगे।
आलोचक यह भी कह सकते हैं कि अहिंसक विरोध केवल लोकतांत्रिक शासन में ही काम कर सकता है। क्योंकि ताकतवर तानाशाही सत्ता तो अहिंसक आंदोलनों को हिंसा से कुचल देगी। यकीनन, हालिया वर्षों में ऐसे मामले सामने आए भी हैं, जिनमें तानाशाही के खिलाफ अहिंसक विरोध को क्रूरता से दबा दिया गया और इनमें हजारों लोग मारे गए।
फिर भी, एनएवीसीओ डेटा हमें एक अलग नजरिया देता है। पारम्परिक धारणा के विपरीत दोनों राजनीतिक वैज्ञानिकों के निष्कर्ष बताते हैं कि अहिंसक आंदोलन हर प्रकार की परिस्थितियों में कारगर हो सकते हैं। सारांश में वे कहते हैं कि ‘हिंसक आंदोलन चाहे कम समय के हों या लंबे, वे हमेशा भयानक विनाश और रक्तपात को ही जन्म देते हैं।
आम तौर पर इनमें निर्धारित लक्ष्य भी नहीं मिल पाता।’ सशस्त्र संघर्ष लंबा चले तो यह प्रदर्शनकारियों को बाहरी समर्थन पर निर्भर कर देता है। इसलिए अहिंसक आंदोलन केवल अपनी नैतिक मजबूती के कारण ही सफल नहीं होते। इन आंदोलनों में समय के साथ बड़ी संख्या में लोग भी जुड़ते जाते हैं।
अच्छी बात यह है कि आज जहां आमतौर पर मीडिया हिंसक विरोध-प्रदर्शनों को कवर करने में ज्यादा समय और संसाधन खपाता है, वहीं अहिंसक आंदोलन बढ़ रहे हैं। अफ्रीका में इनकी वृद्धि तो सबसे तेज है। आंकड़े बताते हैं कि तानाशाही शासनों को उखाड़ फेंकने में अहिंसक क्रांतियों की सफलता दर कुछ हद तक अधिक भी है। ऐसे में देशों-महाद्वीपों की सीमाओं से परे अहिंसक विरोध में सफलता की गुंजाइश अधिक है।
बहुपक्षीय संगठनों और देशों के लिए इन निष्कर्षों के स्पष्ट नीतिगत निहितार्थ हैं कि हिंसक संघर्षों में लगे संगठनों का वित्त-पोषण बंद करें और वेलवेट रिवोल्यूशन यानी अहिंसक क्रांतियों को अधिक फलने-फूलने दें!
वर्ष 1900 से लेकर अब तक के प्रदर्शनों के आंकड़े बताते हैं कि किसी हिंसक संघर्ष की तुलना में शांतिपूर्ण सविनय अवज्ञा के गांधीवादी रास्ते से सफलता की संभावना दोगुनी होती है। संगठनों और देशों के लिए इनके स्पष्ट निहितार्थ हैं कि हिंसा का वित्त-पोषण बंद करें।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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