Chetan Bhagat’s column: No deal is acceptable at the cost of self-respect | चेतन भगत का कॉलम: आत्मसम्मान की कीमत पर कोई भी सौदा मंजूर नहीं है

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7 घंटे पहले
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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार
किसी देश के साथ ट्रेड-डील करना अरेंज्ड मैरिज जैसा पेचीदा मामला होता है! फिलहाल हम अमेरिका के साथ व्यापार के लिए बातचीत कर रहे हैं। भारत को मिले-जुले संकेत मिल रहे हैं। एक तरफ, हमें टैरिफ की धौंस दिखाई जा रही है, जिससे व्यापार की संभावनाएं खत्म हो रही हैं।
दूसरी तरफ, दोनों देश एक-दूसरे तक पहुंच बनाने की भी कोशिशें कर रहे हैं- उच्च-स्तरीय फोन कॉल्स से लेकर भविष्य के संबंधों के लिए आशाएं जताई जाने तक। अमेरिका रिश्ते कायम रखने के साथ ही अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है।
ये सच है कि हमें अमेरिका के साथ अच्छे व्यापारिक संबंधों की जरूरत है। वह दुनिया का सबसे ताकतवर देश होने के साथ ही सबसे बड़ा उपभोक्ता-बाजार भी है। अमेरिका से घनिष्ठ व्यापारिक संबंध हमारी अर्थव्यवस्था, जीडीपी और रोजगार में मदद करते हैं। इसलिए हम चाहते हैं कि यह रिश्ता बने। हालांकि किसी भी अरेंज्ड मैरिज या ट्रेड-डील की तरह हमें कई बातों का भी ध्यान रखना होगा।
दोनों पक्षों के बीच विवाद के कई बिंदु हैं, जिन्हें दो श्रेणियों में रखा जा सकता है। पहली श्रेणी विशुद्ध रूप से व्यापार, व्यवसाय और सांख्यिकी से संबंधित हैं- हम उनसे जो टैरिफ वसूलते हैं बनाम वे हमसे जो टैरिफ वसूलते हैं। इस सूची में प्रमुख विषय कृषि वस्तुएं, दवाइयां, इलेक्ट्रॉनिक्स, बौद्धिक संपदा नियम, डेटा स्थानीयकरण नीतियां और भारत को एक मैन्युफैक्चरिंग केंद्र के रूप में मान्यता देना हैं।
इन तमाम मुद्दों को सुलझाना चुनौतीपूर्ण जरूर है, लेकिन नामुमकिन नहीं। भारत कुछ टैरिफ कम कर सकता है और कुछ क्षेत्रों में रियायतें दे सकता है, और बदले में उसे भी कुछ रियायतें भी मिल सकती हैं। लेकिन दूसरी श्रेणी के मुद्दों को सुलझाना ज्यादा मुश्किल है- ये भू-राजनीति और सम्प्रभुता से जुड़े मुद्दे हैं, जिनमें अमेरिका भारत पर एक खास रुख थोपने को आतुर दिखाई देता है।
इनमें भी दो बड़े मुद्दे हैं : 1) भारत द्वारा रूसी तेल खरीदना, जिसका अमेरिका विरोध करता है क्योंकि वह यूक्रेन का समर्थन करता है और 2) यह अपेक्षा कि भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका की कथित मध्यस्थता को भारत स्वीकार करते हुए उसके प्रति आभार जताए।
इन मुद्दों का ट्रेड, ड्यूटी, टैरिफ या लेवी से कोई लेना-देना नहीं है। ये लगभग नए जमाने की वोक-संस्कृति जैसे मसले हैं, जिसमें एक पक्ष दूसरे पर किसी को कैंसल करने का दबाव बनाता है। मसलन, रूस को कैंसल करें क्योंकि हमें यह पसंद नहीं कि उसने यूक्रेन पर धावा बोला।
यह तो वही बात हुई कि कोई हाई-प्रोफाइल और अमीर परिवार किसी दूसरे परिवार के साथ शादी का रिश्ता तय करने आए, लेकिन यह शर्त लगा दे कि वह किसी तीसरे परिवार से अपनी पुरानी दोस्ती तोड़ दे, क्योंकि उसने किसी चौथे परिवार के साथ कुछ बुरा किया था! इसकी क्या तुक है?
भारत, अमेरिका के साथ रिश्ते कायम रखने की चाहे जितनी कोशिशें क्यों ना करे, लेकिन उसकी यह शर्त कि हम रूस से रिश्ते तोड़ दें, एक बुनियादी चीज को कमजोर करती है- और वह है एक सम्प्रभु देश के रूप में हमारी स्वायत्तता। दुनिया का कोई भी देश ऐसी शर्तों से कैसे सहमत हो सकता है?
इसी तरह, भारत-पाकिस्तान मामले में मध्यस्थता का अनुचित दावा भी हमारी स्वतंत्रता में दखलंदाजी है। हम ऐसा कैसे होने दे सकते हैं? याद कीजिए, आखिरी बार कब किसी देश ने अपनी आजादी की कीमत पर कोई ट्रेड-डील की थी?
इसलिए कोई रिश्ता चाहे कितना भी अच्छा क्यों ना हो या कोई व्यापारिक समझौता कितना भी फायदेमंद क्यों ना लगता हो, कुछ लक्ष्मण-रेखाएं तो खींचनी ही पड़ती हैं। रिश्ते- चाहे वे व्यक्तिगत हों या दो देशों के बीच- जटिल ही होते हैं। व्यापारिक समझौतों के साथ निजी संबंधों के एजेंडे को मिलाने से कभी भी अच्छे नतीजे नहीं निकल सकते हैं।
दुनिया में कोई भी देश अमेरिका से ज्यादा रचनात्मक, इनोवेटिव, आर्थिक रूप से चतुर, स्वतंत्र और शक्तिशाली नहीं है। वह हमारे जैसा ही लोकतंत्र भी है, और हम उसके स्वाभाविक सहयोगी हैं। हम उसके साथ व्यापार करना पसंद करेंगे, भले इसके लिए हमें अपने कुछ लाभ छोड़ने पड़ें। लेकिन ऐसा हम अपनी सम्प्रभु स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं कर सकते। आत्मसम्मान की कीमत पर कोई भी सौदा या रिश्ता मंजूर नहीं है।
अमेरिका हमारे जैसा ही लोकतांत्रिक देश है, और हम उसके स्वाभाविक सहयोगी हैं। हम यकीनन उसके साथ व्यापार करना पसंद करेंगे, भले इसके लिए हमें अपने कुछ लाभ छोड़ने पड़ें। लेकिन ऐसा हम अपनी सम्प्रभु स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं कर सकते।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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