Thursday 23/ 10/ 2025 

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संघ के 100 साल: ‘उठो केशव शस्त्र उठाओ…’, बोस, सावरकर की अपील टालकर अहिंसा पर डटे रहे हेडगेवार – dr Hedgewar freedom movement sc bose Savarkar appeal rss 100 years story ntcppl

हर महान व्यक्ति लक्ष्य तय करने तक अपने जीवन में ढेर सारे प्रयोगों और विचारधाराओं से गुजरता है. डॉ केशव बलिराम हेडगेवार भी इससे अछूते नहीं थे. बचपन से ही वो क्रांतिकारी बनना चाहते थे. वंदेमातरम ना बोलने के खिलाफ आंदोलन करना हो, रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण की वर्षगांठ की मिठाई को कूड़ेदान में फेंकना हो या फिर नागपुर के किले तक सुरंग खोदकर ब्रिटिश झंडे की जगह भगवा ध्वज फहराने की योजना.

अगर उनके विचार ना बदले होते तो क्रांतिकारियों की सूची में उनका भी नाम होता. उनका ये जुनून युवावस्था में भी जारी रहा. कलकत्ता में अनुशीलन समिति के लिए क्रांतिकारियों को हथियार पहुंचाने के काम में जुट गए. बाद में तिलक और मुंजे जैसे नेताओं के प्रभाव में कांग्रेस का रुख किया और जमकर काम भी किया. लेकिन संघ की स्थापना एक क्रांति थी. इतने बड़े-बड़े नेताओं ने उन्हें हथियार बंद क्रांति का प्रस्ताव दिया मगर वो अहिंसा पर डटे रहे. ये वाकई में उनके बचपन और जवानी के जुनून से एकदम अलग किस्म का निर्णय था.

डॉ. हेडगेवार को अनुशीलन समिति और कांग्रेस में काम करने के बाद धीरे-धीरे ये समझ आ गया था कि हिंसा का खुलेआम रास्ता अपनाने का परिणाम या तो काला पानी है या फिर मौत. इसके साथ ही संगठन भी खत्म हो जाना है. हेडगेवार के मन में तो ये पहले से था कि राजनीतिक आजादी के बाद भी आर्थिक और सांस्कृतिक आजादी की लड़ाई लड़नी है. देश को समृद्धि के शिखर पर लाना है तो संगठन को दशकों तक जिंदा रखना होगा, पूरे देश में पहुंचाना होगा और हर समय हर विरोधी पर नजर रख रही ब्रिटिश सरकार उसे खत्म करने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देगी. 

आपको ये गांधीजी की तरह का अहिंसक तरीका लगे, लेकिन असल में ये तरीका असली केशव यानी श्रीकृष्ण का था. संगठन अहिंसा के रास्ते ही चलेगा लेकिन क्रांतिकारियों को गुपचुप मदद भी जारी रहेगी यानी समय के अनुसार रणनीति.

इसीलिए हेडगेवार ने आंदोलनों में संघ के नाम से भाग नहीं लिया, बल्कि सभी को व्यक्तिगत स्तर पर भाग लेने की अनुमति दी, खुद भी सरसंघचालक के पद से इस्तीफा देकर ही जंगल सत्याग्रह में गए. हालांकि उनके मन में क्या था ये आप सरसेनापति के पद, मिलिट्री जैसी ट्रेनिंग और यूनीफॉर्म (गणवेश) से ही समझ सकते हैं. मार्तंड राव जोग जैसे रिटायर्ड सैन्य अधिकारी ने ही ट्रेनिंग की कमान संभाली थी.

भगत सिंह के साथ सुखदेव को शरण दी, ना जाने कितने क्रांतिकारियों को छुपने में मदद की, कितनों को हथियार और धन उपलब्ध करवाया लेकिन संघ को इन सबसे बचाकर उसके विस्तार में लगे रहे. मध्य भारत से निकालकर वह धीरे-धीरे शाखाओं का विस्तार, पंजाब, बंगाल, बिहार आदि प्रदेशों में करने में जुट गए.

ऐसे में सबसे पहले उन्होंने उस क्रांतिकारी मित्र भाऊजी काबरे को बदला, जिसके साथ मिलकर कलकत्ता से डॉक्टर की डिग्री लेकर आने के बाद नागपुर में अनुशीलन समिति जैसे क्रांतिकारी संगठन बनाने की असफल कोशिश की थी. तभी तो डॉ हेडगेवार को लग गया था कि दूर तक जाना है और ज्यादा लोगों को साथ लेना है तो हाथ में हथियार नहीं मन में मजबूत संकल्प के साथ चलना होगा. भाऊजी काबरे भी बदल गए और अगले पांच साल में 100 शाखाएं खड़ा करने, स्वयंसेवकों को जोड़ने और उन्हें प्रशिक्षण देने में भाऊजी की बड़ी भूमिका रही.

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लेकिन जिस डॉ बीएस मुंजे की प्रेरणा से वो क्रातिंकारी बने, कांग्रेस से जुड़े, वही उनके पास हिंसा का रास्ता अपनाने की मांग लेकर आ गए तो डॉ हेडगेवार के लिए मुश्किल हो गई. हेडगेवार 1931 की अपनी डायरी ‘The Diary of My Tour Around The World’ में लिखते हैं कि मोपला जैसे अत्याचारों से बचने के लिए भारत में हिंदुओं के पास भी मुसोलिनी जैसी आर्मी होनी चाहिए. दरअसल 1927 में यानी संघ की स्थापना के 2 साल बाद ही वो तेजी से उससे युवाओं को जुड़ते देखकर डॉ हेडगेवार के पास एक प्रस्ताव लेकर आए थे कि हिंदू राष्ट्र के लिए हमें भी एक हथियार बंद युवाओं की आर्मी खड़ी करनी होगी, जिसके लिए वित्तीय मदद देने के लिए मैं तैयार हूं. हेडगेवार के लिए मुंजे को ना कहना मुश्किल तो था, लेकिन उनको कहना ही पड़ा. उन्होंने साफ कहा कि संघ अहिंसा के रास्ते ही आगे बढ़ेगा.

 हिंदू महासभा ने बिना बताए राम सभा में जोड़ दिया नाम

मुंजे हिंदू महासभा से भी जुड़े हुए थे. 13 साल बाद उन्होंने फिर से ऐसी ही कोशिश की. उस वक्त डॉ हेडगेवार काफी बीमार थे और स्वास्थ्य लाभ के लिए राजगीर (बिहार) प्रवास पर थे, 17 मार्च 1940 को हिंदू महासभा ने एक नया युवा संगठन शुरू करने की घोषणा की. नाम रखा ‘राम सेना’.  डॉ हेडगेवार भी उन दिनों हिंदू महासभा से जुड़े हुए थे, वैसे भी वो वीर सावरकर का बड़ा सम्मान करते थे, उनके भाइयों से सीधे जुड़े हुए थे. डॉ मुंजे ने घोषणा की कि राम सेना हिंदू महासभा की आर्मी के तौर पर काम करेगी. परचे छपवाकर लोगों में बंटवाए गए कि क्यों हिंदू महासभा ये आर्मी तैयार कर रही है. 

डॉ हेडगेवार ने स्पष्ट किया कि संघ अहिंसा के रास्ते पर आगे बढ़ेगा. (Photo: AI generated)

‘हेडगेवार चरित’ में नाना पालकर बताते हैं कि 27 मार्च को नागपुर के एक अखबार ने छापा कि डॉ हेडगेवार भी राम सेना के पदाधिकारियों में हैं, उनका नाम भी परचे में छपा है. राजगीर में जब ये खबर डॉ हेडगेवार को लगी तो उन्होंने फौरन ऐतराज जताया और खुद को इस बीमारी की हालत में कोई भी पद स्वीकार करने में असमर्थता जताई. लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी और परचों में उनका नाम जाता रहा. मामला कभी उनके संरक्षक रहे बीएस मुंजे और वीर सावरकर से जुड़ा था, लेकिन चुप रहने से संघ की सालों में तैयार की गई छवि खराब होनी भी तय थी. 3 अप्रैल को उसी अखबार में एक विज्ञापन संशोधन छपा कि सरसंघचालक डॉ हेडगेवार ने हमें सूचित किया है कि राम सेना के पदाधिकारियों में उनका नाम उनकी अनुमति के बिना छापा गया है. मुंजे के नाराज होने का डर था, लेकिन हेडगेवार का निर्णय दूरदर्शी साबित हुआ. राम सेना में उनका नाम देने के पहले सावरकर ने भी मुंजे के माध्यम से एक बार हिंदू संरक्षण सेना का प्रस्ताव उनके पास भेजा था.

नेताजी और डॉ हेडगेवार मिलकर भी नहीं मना पाए

तीसरा जो महान चेहरा डॉ हेडगेवार के पास सशस्त्र विद्रोह का प्रस्ताव लेकर आया वो था नेताजी सुभाषचंद्र बोस का. सुभाष चंद्र बोस 1939 में कांग्रेस से इस्तीफा देकर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का मन बना चुके थे. उनको बखूबी पता था कि जितने अनुशासित कार्यकर्ता संघ के पास हैं किसी के पास नहीं. तो उन्होंने बम्बई से दो दूतों को डॉ हेडगेवार के पास भेजा. इनमें से एक थे बालाजी हुद्दार जो कभी संघ के पहले सरकार्यवाह थे, और कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित होकर इंगलैंड चले गए थे. तब हेडगेवार देवलाली में थे और काफी बीमार थे. गुरु गोलवलकर लगातार उनके साथ थे, उनकी सेवा में जुटे थे. ये बात 8 या 9 जुलाई 1939 की है.

बालाजी ने बोस का संदेश हेडगेवार को दिया कि दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ चुका है, ब्रिटिश सरकार उसमें व्यस्त है, ये सही समय है कि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक विद्रोह कर उसे उखाड़ फेंका जाए. बालाजी ने बताया कि नेताजी बोस आपसे मिलना चाहते हैं, इस वक्त बम्बई में है. डॉ हेडगेवार अचानक से फिर दोराहे पर खड़े हो गए थे. जिस सुभाषचंद्र बोस का वह इतना सम्मान करते थे वो खुद मिलने की बात कर रहे थे. 

लेकिन मुद्दा ऐसा था कि जिस पर फैसला लेना आसानी से संभव नहीं था तो उन्होंने कहलवाया कि हम नागपुर में मिल सकते हैं. डॉ हेडगेवार ने ये भी कहा कि, “ये सही है कि वातावरण बड़ा ही अनुकूल है. लेकिन क्या हम आजादी की लड़ाई को तैयार हैं? शुरू करने के लिए हमें कम से कम 50 प्रतिशत तो तैयार होना ही चाहिए. सुभाषचंद्र बोस के पास कितनी क्षमता है? अगर हम आंशिक भी तैयार नहीं हैं तो हम दूसरों के समर्थन के भरोसे पर निर्भर नहीं रह सकते”. 

इस बयान में कहीं इनकार नहीं है, बल्कि संभावना है और नेताजी बोस की क्षमता की बात इसलिए क्योंकि अब वो कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं थे और तब तक आजाद हिंद फौज का नेतृत्व रासबिहारी बोस ने उन्हें सौंपा नहीं था, सो ऐसे सवाल लाजिमी थे.

लेकिन फिर नेताजी की तरफ से पत्र आया कि वो बम्बई में मिल सकते हैं, लेकिन ये पत्र संघ प्रमुख को देरी से मिला, मगर उनकी तबियत खराब थी सो नहीं जा पाए. ऐसे में दशकों बाद बालाजी हुद्दार ने आरोप लगाया था कि हेडगेवार नेताजी बोस की मदद नहीं करना चाहते थे. जबकि हकीकत ये भी थी कि जो बालाजी हुद्दार ब्रिटिश आर्मी की एक यूनिट के सिपाही के तौर पर खुद स्पेन में लड़कर आया था, अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई छेड़ने की उसकी बात पर यकीन कैसे किया जा सकता था. हालांकि एक बार पहले भी नेताजी बोस से महाराष्ट्र में ही हेडगेवार से मिलने की बात हुई थी, लेकिन बोस ने बाद में ये कहकर मना कर दिया था कि कांग्रेस के कुछ नेता ऐसा नहीं चाहते हैं.

आखिरकार नेताजी सुभाषचंद्र बोस हेडगेवार से मिलने नागपुर आए तो जरूर मगर ठीक उस रात को जो उनकी आखिरी रात थी. नेताजी बोस जब आए तब हेडगेवार बेहोशी जैसी स्थिति में थे, कभी आंखें खोल देते थे, कभी आंखें देर तक बंद रहती थीं. नेताजी थोड़ी देर उनके सिरहाने बैठकर चले गए. 

दावा तो किया जाता है कि लाला लाजपत राय ने भी उनसे अनुशीलन समिति जैसा एक संगठन खड़ा करने के लिए कहा था, लेकिन हेडगेवार मानो अपनी दिशा तय कर चुके थे. उन्हें अहिंसा के रास्ते पर ही चलना था और पहले संगठन का विस्तार देश के कोने-कोने तक पहुंचाना था.

पिछली कहानी: हैदराबाद के निजाम की वजह से RSS को मिला गुरु गोलवलकर जैसा नेतृत्व?

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