Priyadarshan’s column – Nithari is not the only village where the path to justice is blocked | प्रियदर्शन का कॉलम: निठारी अकेला गांव नहीं है, जहां न्याय की गली बंद है

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7 घंटे पहले
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प्रियदर्शन लेखक और पत्रकार
जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की पंक्तियां हैं- “हम सबके हाथ में/ थमा दिए गए हैं/ छोटे-छोटे न्याय/ताकि जो बड़ा अन्याय है, उस पर परदा पड़ा रहे।’ लाल किले के पास बम धमाके के बाद आतंकियों को याद रखने लायक जवाब देने के वादे और बिहार के चुनावी नतीजों पर मन रहे उल्लास के बीच क्या किसी को वाकई न्याय और लोकतंत्र की परवाह है? यह सवाल इन दिनों देश के औद्योगिक विकास का एक भव्य नगर बन रहे नोएडा के एक गांव निठारी के वे बच्चे पूछने लायक नहीं रह गए हैं, जिनके शवों के टुकड़े एक नाली में पड़े मिले थे।
बीस बरस पहले एक-दो नहीं, सत्रह बच्चों के कंकाल बता रहे थे कि बीते कुछ महीनों से इस इलाके में क्या कुछ चल रहा था और इन खोए हुए बच्चों के मां-बाप की शिकायत को मजाक में उड़ाने वाली पुलिस ने कैसी आपराधिक लापरवाही की थी।
जब यह मामला सुर्खियों में आया, तब अचानक न्याय तंत्र सक्रिय हुआ- वहीं के एक बंगले के मालिक मोनिंदर सिंह पंढेर और उसका नौकर सुरेंदर कोली पकड़े गए। तब बताया कि उनके खिलाफ कई सबूत मिल चुके हैं। लेकिन पहले पंढेर सारे मामलों से बरी हुआ और उसके बाद बीते हफ्ते कोली भी छूट गया।
किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। किसी राजनीतिक दल, नेता, मंत्री या उससे भी ऊपर बैठे शख्स को तब न्याय का खयाल नहीं आया। अखबारों के पन्नों पर और टीवी चैनलों में बेशक यह अपराध-कथा दिखी, लेकिन बताया गया कि किस बुनियाद पर सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें बरी किया।
सुप्रीम कोर्ट के अपने आधार होंगे, लेकिन सवाल यह है कि इन बच्चों को किसी ने मारा तो जरूर। उन्हें पकड़ा क्यों नहीं जा सका? और जिन्हें पकड़ा गया, उनका अपराध साबित क्यों नहीं किया जा सका? ठीक है कि सुरिंदर कोली ने फिर भी 19 बरस की जेल काट ली- लेकिन अगर वह बेगुनाह था, तो उसके साथ यह अन्याय क्यों हुआ? और अगर वह गुनहगार है तो उसे इस तरह बरी किए जाने का गुनहगार कौन है?
निठारी अकेला मोहल्ला या गांव नहीं है, जहां न्याय की गली बंद है। दरअसल इस देश में गरीब आदमी के लिए न्याय पाना लगातार असंभव होता जा रहा है। अव्वल तो पुलिस केस दर्ज नहीं करती, दर्ज हो जाए तो ठीक से जांच नहीं करती, अगर मामला अदालत तक पहुंच जाए तो गरीब को करीने के वकील नहीं मिलते।
क्या यह सच नहीं है कि देश के सबसे अच्छे वकील सबसे मोटे पैसे वाले अपराधियों के बचाव में व्यस्त रहते हैं? यह जानकारी आम है कि इस देश के सबसे अच्छे वकील एक-एक पेशी के लिए 25 से 50 लाख रुपए तक ले लिया करते हैं। इतने पैसे में न्याय हो नहीं सकता, वह खरीदा या बेचा ही जा सकता है।
इन बड़े वकीलों की बात छोड़ भी दें तो हिंदुस्तान की कचहरियां और जेलें शायद अकल्पनीय भ्रष्टाचार और अमानुषिक दमन के सबसे बड़े केंद्रों के रूप में पहचानी जाती हैं। हमारी जेलों में सबसे ज्यादा यहां के गरीब लोग भरे पड़े हैं।
उनकी सामुदायिक शिनाख्त बताती है कि देश के दलित, आदिवासी और मुसलमान जेल के भीतर सबसे बड़ी आबादी बनाते हैं। इनमें से बहुत बड़ी तादाद ऐसे बेचारों की है, जिनका मामला व्यवस्था में बरसों नहीं, दशकों से ‘विचाराधीन’ है।
निठारी के बच्चों को न्याय नहीं मिलेगा- यह लगभग पहले दिन से तय था। उनके मां-बाप की ऐसी आर्थिक हैसियत नहीं थी कि वे अपने लिए न्याय खरीद सकें। फिर उनका सामना एक अमीर शख्स से और ऐसे अमीरों पर मेहरबान एक बेईमान पुलिस तंत्र से था।
अब तो स्थिति यह है कि हमारे न्याय-तंत्र में जाति और धर्म देखकर जेल और जमानत का फैसला होता जान पड़ता है, जुर्म और सबूत देखकर नहीं। देश में कानून जितने सख्त होते जा रहे हैं, उनका दुरुपयोग उतना ही बढ़ता जा रहा है। एक तरफ तो निठारी का अन्याय है और दूसरी तरफ वह “बुलडोजर न्याय’, जो जब भी चलता है तो सबसे पहले हमारे न्याय-तंत्र के प्रति भरोसे की छाती पर ही चलता है!
निठारी के बच्चों को किसी ने मारा तो जरूर। उन्हें पकड़ा क्यों नहीं जा सका? और जिन्हें पकड़ा गया, उनका अपराध साबित क्यों नहीं किया जा सका? लेकिन निठारी के बच्चों को के मां-बाप की ऐसी आर्थिक हैसियत नहीं थी कि वे अपने लिए न्याय खरीद सकें। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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