Abhay Kumar Dubey’s column – We could not do as much as we should have done for export | अभय कुमार दुबे का कॉलम: निर्यात के लिए जितना करना था, हम उतना नहीं कर पाए

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9 घंटे पहले
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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
इतिहास बताता है कि बुश सीनियर के जमाने में अमेरिका ने अपने सुपर-301 कानून के तहत भारत पर टैरिफ लगाने की धमकी दी थी। इससे भारत-अमेरिकी संबंधों में टूट का खतरा पैदा हो गया था। प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अमेरिका के सामने झुकने से इनकार कर दिया था।
यह रस्साकशी कुछ दिन जारी रही और फिर एक दिन अमेरिका ने चुपचाप टैरिफ की धमकी वापिस ले ली। जाहिर है आज परिस्थिति बदली हुई है। भारतीय अर्थव्यवस्था उन दिनों वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ी हुई नहीं थी और अमेरिका पर निर्यात-निर्भरता भी काफी कम थी। लेकिन सवाल यह है कि आज हमारी अर्थव्यवस्था में कौन-सी कमजोरियां हैं?
कहना न होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था प्रगति की सम्भावनाओं से सम्पन्न है। पर ये सम्भावनाएं भविष्य के गर्भ में हैं। वर्तमान तो चुनौतियों से भरा हुआ है। सरकार, उसके थिंक टैंक और समर्थक जिन आंकड़ों के आईने में अर्थव्यवस्था को दुनिया के पैमाने पर ऊंचाइयां नापते दिखाना चाहते हैं, उनकी कमजोरी ऊपरी परत खुरचने पर ही साफ हो जाती है।
मसलन, कहा जाता है कि भारत के सेवा-क्षेत्र ने निर्यात (जैसे आईटी) के मामले में शानदार कामयाबी हासिल की है। लेकिन ग्लोबल ट्रेड में भारत का हिस्सा 4.6% ही है। यही हालत माल या वस्तुओं के निर्यात की है। ग्लोबल ट्रेड का वह 2% से भी कम है।
हम जानते हैं कि 90 के दशक से ही भारतीय अर्थव्यवस्था निर्यातोन्मुख विकास के पैटर्न पर चलाई जा रही है। ट्रम्प द्वारा भारतीय निर्यात पर भारी टैरिफ लगाने के कारण पैदा हुई बेचैनियों का कारण यही है। इससे ग्लोबल ट्रेड में ये प्रतिशत और नीचे चले जाएंगे।
2024 के अंत में प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो ने दावा किया कि सन् 2000 के बाद से भारत का एफडीआई एक ट्रिलियन (खरब) डॉलर तक पहुंच गया है। यह सुनने में चाहे जितना आकर्षक लगे, लेकिन यह ग्लोबल एफडीआई का केवल ढाई फीसदी है।
जब कोविड वायरस दुनिया में फैलने के कारण मिली बदनामी की वजह से चीन से निवेश का पलायन हो रहा था, तो सरकारी नैरेटिव चलाया गया कि इससे भारत को बहुत फायदा होगा। लेकिन क्या ऐसा हुआ? भारत में वह निवेश आया, लेकिन केवल 10 से 15% के बीच। भारत के मध्यवर्ग की सुनहरी तस्वीरें उकेरी जाती है। लेकिन उसकी कमजोर क्रयशक्ति बाजार को उपभोग की ऊंचाइयों पर पहुंचाने में असमर्थ है।
भारत में उपभोग बढ़ने की गति केवल 3% है। इसीलिए निर्यात पर उसकी निर्भरता और बढ़ जाती है। पर्यटन विदेशी मुद्रा बढ़ाने का बड़ा जरिया माना जाता है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के भारत आगमन की वृद्धि दर केवल 1.5% है।
अभी-अभी प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि भारत का प्रतिरक्षा बजट पिछले दस साल में कई गुना बढ़ गया है। लेकिन जीडीपी के संदर्भ में इस बजट की वृद्धि दर केवल 2% पर रुकी हुई है। जहां तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी में नए मुकाम हासिल करने का सवाल है, भारत जाने कब से इस क्षेत्र में पूरी तरह से अप्रासंगिक बना हुआ है।
अर्थव्यवस्था की प्रगति नापने का एक मापदंड है नॉमिनल जीडीपी। यानी, एक वर्ष में सभी उत्पादित चीजों और सेवाओं का कुल मूल्य जिसे वर्तमान मूल्यों के आधार पर जोड़ा जाता है। दावा किया जा चुका है कि इस नॉमिनल जीडीपी में हम ब्रिटेन के बराबर हो गए हैं।
असलियत क्या है? 2021 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 2250 डॉलर थी और ब्रिटेन की 46,115 डॉलर। 2025 आते-आते ब्रिटेन के लिए यह आंकड़ा बढ़ कर 54,949 और भारत के लिए 2879 हो गया। यानी ब्रिटेन ने इस दौरान प्रति व्यक्ति आमदनी 8,000 बढ़ा दी और भारत केवल 600 डॉलर बढ़ा पाया। निर्यातोन्मुख विकास के लिए जितना काम हमें करना चाहिए था, हम उतना नहीं कर पाए हैं। इसीलिए अमेरिका हम पर दबाव बना पा रहा है।
2024 के अंत में दावा किया गया था कि 2000 के बाद से भारत का एफडीआई एक ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। यह सुनने में चाहे जितना आकर्षक लगे, लेकिन यह ग्लोबल एफडीआई का केवल ढाई फीसदी है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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