संघ के 100 साल: प्लेग में हेडगेवार ने खोए थे माता-पिता और भाई, तेलंगाना से नागपुर आकर बसा था परिवार – Rss 100 years story plague epidemic maharashtra dr hedgewar family plague fever ntcppl

डॉ केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म तो नागपुर में हुआ था, लेकिन उनका सरनेम ‘हेडगेवार’ महाराष्ट्र का नहीं है. उनके जन्म से कई दशक पहले उनके दादा नरहरि शास्त्री नागपुर में आकर बसे थे. उनका पैतृक गांव था कंदकुर्ती, जो तेलंगाना में महाराष्ट्र की सीमा पर है. गांव में ज्यादातर लोग तेलुगू बोलते हैं. मराठी और कन्नड़ भी बोली जाती है. तेलंगाना में इसी गांव से गोदावरी नदी राज्य में प्रवेश करती है और यहीं उससे दो नदियां और आकर मिलती हैं, हरिद्रा और मंजरी. यह संगम गांव निजामाबाद जिले को बोधन तालुक (तहसील) में पड़ता है. संगम गांव होने की वजह से इसका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है.
इस गांव में ब्राह्मणों के कई परिवार थे और देशस्थ ब्राह्मण हेडगेवार का परिवार प्रमुख था, क्योंकि पूरा परिवार वेद पठन पाठन में सक्रिय था, वही उनकी आजीविका थी. हेडगेवार परिवार के अभिलेखों में एक नियुक्ति पत्र भी मिलता है, जो बताता है कि कभी शंकराचार्य (आदि शंकराचार्य के धार्मिक वंशज) यहां आए थे और उन्हें हिंदू धर्म के रक्षण और प्रचार के लिए अपना प्रतिनिधि नियुक्त करके गए थे. शायद तभी से आसपास के क्षेत्र में सनातन, वेद-पुराणों आदि को लेकर उनके परिवार की राय ली जाती थी.
नाना पालकर हेडगेवार चरित में ये भी लिखते हैं कि उनके परिवार में सदस्यों को कुश्ती का भी शौक था, सो ये ज्यादातर बलिष्ठ हुआ करते थे. निजाम के शासन के समय हिंदुओं पर अत्याचार धीरे-धीरे बढ़ने लगा था. ऐसे में धीरे-धीरे सीमावर्ती क्षेत्रों से पास के राज्यों में हिंदुओं का पलायन बढ़ने लगा. हेडगेवार के दादा भी पूरे परिवार को लेकर नागपुर चले आए. तब भी वहां शिवाजी भोंसले के परिवार का साम्राज्य था, भले ही 1853 के बाद अंग्रेजी अधिकार में आ गया था. आज कंडकुर्ती गांव में 65 प्रतिशत मुस्लिम हैं और करीब 35 प्रतिशत हिंदू. ये अलग बात है कि डॉ हेडगेवार का पुश्तैनी घर होने के चलते देश भर के स्वयंसेवक वहां एक तीर्थ की तरह आते-जाते रहते हैं. हालांकि गांव में जितने प्राचीन मंदिर हैं, उतनी ही मस्जिदें भी हैं.
स्थानीय ग्रामीणों ने डॉ हेडगेवार के इस छोटे से घर को तब संघ के सर सरकार्यवाह रहे मोरो पंत पिंगले की सहायता से एक स्मारक में बदल दिया था, जहां एक केशव बाल विद्या मंदिर चल रहा है. दिलचस्प बात है कि इस स्कूल में लगभग 30 प्रतिशत मुस्लिम बच्चे पढ़ते हैं. पिंगले ने हेडगेवार परिवार के कुलदेवता के मंदिर को भी भव्य रूप दे दिया था. आजकल इस गांव को सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत निजामाबाद की सांसद के कविता (बीआरएस) ने गोद ले रखा है.
नरहरि शास्त्री के बेटे बलिराम पंत हेडगेवार ने भी पिता की तरह ही वेद, शास्त्रों में प्रवीणता हासिल कर ली थी और धीरे-धीरे उन्होंने नागपुर में अपना नाम बना लिया. हालांकि परिवार का गुजारा अब उसी पूजा पाठ पर चलता था. उनकी पत्नी रेवती बाई (दूसरा नाम यमुनाबाई) भी तेलंगाना से नागपुर आए पैठंकर परिवार से थीं. दोनों के 6 बच्चे हुए. तीन लड़के, तीन लड़कियां. लड़कों के नाम उन्होंने रखे महादेव, सीताराम और केशव, लड़कियों के रखे राजू, रंगू और शरायू या सरू. केशव इनमें पांचवें बच्चे थे, जो वर्ष प्रतिपदा के दिन 1 अप्रैल 1889 को पैदा हुए थे. महादेव सबसे बड़े थे और सीताराम लड़कों में दूसरे थे.
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कालांतर में तीनों लड़कियों के विवाह अच्छे परिवारों में कर दिए गए, शरायु या सरू का विवाह नागपुर के देव परिवार में हुआ. राजू का विवाह विंचुरे परिवार में हुआ तो रंगू का विवाह पत्तलवार परिवार में हुआ. महादेव और सीताराम दोनों ने परिवार की वेद शास्त्रों के वाचन की परम्परा को आगे बढ़ाया. महादेव काशी से पढ़कर आए और महादेव शास्त्री कहलाने लगे. उन दिनों तेलंगी ब्राह्मणों के बारे में कहा जाता था कि ये स्वभाव से गुस्सैल होते हैं, जो पिता बलिराम और बड़े भाई महादेव थे भी. हालांकि सीताराम और केशव स्वभाव से शांत थे. यूं शुरुआती शास्त्रों की शिक्षा केशव ने भी पिता और बड़े भाई से ली थी, लेकिन वो सीताराम की तरह वैदिक स्कूल में पढ़ने नहीं गए. उनकी शुरुआत से ही दिलचस्पी देश की राजनीतिक, सामाजिक घटनाओं पर थी, जबकि उनके घर का माहौल पूरी तरह धार्मिक था, और पिता व भाई अक्सर किसी ना किसी तरह की पूजा या धार्मिक आयोजन से जुडे रहते थे. इधर केशव का दाखिला महाल के नील सिटी हाई स्कूल में करवा दिया गया. आजकल इसका नाम दादा धनवटे विद्यालय है.
जब केशव के परिवार पर टूटा प्लेग का कहर
केशव की उम्र मुश्किल से 13-14 साल रही होगी, और सीताराम की 18, कि नागपुर में प्लेग की प्रकोप फैल गया. 19वीं सदी के आखिरी 4 साल और 20वीं सदी का पहला दशक प्लेग की महामारी ने भारत में करीब 10 लाख लोगों को मौत दे दी थी. जबकि आज की पीढ़ी ने प्लेग सुना भी नहीं है, तब इसका कोई इलाज नहीं था. उनके पिता बलिराम पंत को लगता था कि वो तो घर को इतना स्वच्छ रखते हैं, यहां तो प्लेग का वायरस आ ही नहीं सकता, इसलिए उन्होंने वहां से निकलने में देरी की जबकि पड़ोसी कब के घर छोड़कर जा चुके थे. तमाम सावधानियों के बावजूद घर में प्लेग संक्रमित एक चूहा मरा हुआ मिला, वो फौरन अपने परिवार के साथ अपनी बेटी राजू के घर आ गए. यहां भी उनके रोज सुबह के तीन घंटे के धार्मिक अनुष्ठान जारी रहे.
लेकिन एक पंडित होने के नाते उनको अंतिम संस्कार के लिए श्मशान भी जाना होता था, प्लेग संक्रमित लाशें आ रही थीं. परिवार के समझाने के बावजूद वो सामाजिक जिम्मेदारी की बात कहकर जाते रहे और एक दिन फरवरी 1903 में बलिराम भी प्लेग की चपेट में आ गए, साथ में उनकी पत्नी रेवती भी. राजू के पति और महादेव ने काफी कोशिश की, लेकिन होनी ने कुछ और ही लिख रखा था. पहले केशव के पिता काल के मुंह में समाए, फिर पीछे-पीछे मां भी चली गईं.
बड़े भाई महादेव की लीला समझ नहीं आई
माता-पिता की मौत के बाद सबसे बड़े बेटे महादेव पर ही परिवार का बोझ आ गया और साथ में माता-पिता का जो थोड़ा बहुत डर था वो खत्म हो गया. महादेव ने भांग पीना शुरू कर दिया. दोनों भाइयों को ये पसंद नहीं था सो अक्सर झगड़े होने लगे. हालांकि छोटे दोनों भाइयों पर घर में भोजन आदि बनाने की जिम्मेदारी थी, गाय की जिम्मेदारी थी और महादेव घर का कमाऊ सदस्य था. सीताराम ने लड़कर तब घर ही छोड़ दिया और वेदों की पढ़ाई के लिए इंदौर चले गए. इधर केशव ने भी ज्यादातर समय मित्रों और रिश्तेदारों के यहां बिताना शुरू कर दिया. अगले दो-तीन साल दोनों छोटे भाइयों के लिए कठिन थे, कभी खाना मिला, कभी नहीं मिला, कभी कपड़े धुले पहन लिए, कभी फटे भी पहनने पड़े.
लेकिन केशव ने अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ी. क्लास में टॉप 5 में रहना ही रहना था. साथ में देश और समाज के लिए काम भी करना था. तिलक का पैसा फंड भी इन्हीं दिनों शुरू हुआ था. डॉ बीएस मुंजे से भी सम्पर्क में इन्हीं दिनों आना हुआ था. उसके बाद वंदेमातरम आंदोलन हो या सीताबर्डी किले पर चढ़ने के लिए सुरंग खोदना, स्कूली जीवन में ही केशव ने अपने जीवन की दिशा तय कर दी. भाई के पास भी केशव का जाना होता था, और महादेव की यही सलाह होती थी कि पढ़ाई करो, फालतू के कामों में समय नष्ट मत करो.
केशव ने बाद में डॉक्टर की पढ़ाई के लिए कलकत्ता का रुख कर लिया और सीताराम शास्त्री ने पिता की तरह प्रवचन, पूजा, संस्कार आदि करने शुरू कर दिए. डॉक्टर बनकर जब केशव ने वापसी की तो महादेव ने बड़ी खुशी जताई कि केशव अब डिस्पेंसरी खोलेगा, हालांकि इसी बीच महादेव ने घर के एक हिस्से में किरायेदार भी रख लिया था. लेकिन केशव की मेडिकल व्यवसाय में रुचि नहीं दिखी तो महादेव को ये अच्छा नहीं लगा. केशव ने भी ज्यादातर समय बाहर ही गुजारना शुरू कर दिया. अचानक फिर से प्लेग ने धावा बोला और केशव और सीताराम ने खूब कहा महादेव से कि नागपुर छोड़ दो, लेकिन उन्होंने नहीं छोड़ा, वो दोनों चले गए.
जिद्दी महादेव को लगता था कि प्लेग उनका क्या बिगाड़ सकता है. वीरान पड़े मोहल्ले में महादेव की प्लेग की चपेट में आने से मौत हो गई और कई दिन तक किसी को पता भी नहीं चला. चोर मौके का फायदा उठाकर घर में से सारा सामान चोरी करके ले गए. बाद में सीताराम और केशव लौटे तो बड़ा दुख हुआ. अब फिर से दोनों भाई एक साथ अपने पुराने घर में रहने लगे. बाद में सीताराम ने विवाह कर लिया तो घर फिर से घर जैसा लगने लगा. महादेव का जिम बंद कर दिया गया. सीताराम अपनी गृहस्थी में व्यस्त होते चले गए और केशव एक विशाल संगठन के अपने सपने को पूरा करने में.
परिवार के जिक्र में गुरु गोलवलकर और गांधीजी का जिक्र क्यों आता है?
हालांकि कई जीवनीकारों ने डॉ हेडगेवार के दो अलग-अलग दो भतीजों का जिक्र किया है, जिनमें से एक निजाम के खिलाफ हैदराबाद आंदोलन में जेल भी गया था. नाम था वामनराव हेडगेवार, जिसे सीताराम शास्त्री का बेटा माना जाता है. दूसरे भतीजे या दूर के रिश्तेदार का जिक्र भी है, जो केशव की देखभाल के लिए उनके साथ रहता था, और नागपुर में ही पढ़ाई कर रहा था, लेकिन उसका मानसिक स्तर सामान्य ना होने का जिक्र भी मिलता है. बाद में जब डॉ हेडगेवार गंभीर रूप से बीमार थे, तब गुरु गोलवलकर आदि उनके साथ थे, तब डॉक्टर ने उनके परिवार को सूचित करने को कहा था, तब गुरुजी ने जवाब दिया था, “हम ही उनके परिजन हैं”.
परिवार का जिक्र ड़ॉ हेडगेवार और गांधीजी की बातचीत के दौरान भी आया था. गांधी ने संघ के शिविर में जब इतना अनुशासन देखा, सभी जातियों के लोगों को एक साथ बैठकर खाना खाते देखा, तो उन्हें बड़ी हैरत हुई. ऐसा अनुशासन तो वो कांग्रेस में भी नहीं ला पा रहे थे, तो उन्होने केशव से पूछा था कि परिवार में कौन-कौन है? डॉ हेडगेवार का जवाब था कि कोई नहीं? विवाह ही नहीं किया. गांधीजी हैरान थे और कहा था कि तभी इतना बड़ा और अनुशासित संगठन इतने कम समय में खड़ा कर पाए हो.
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