Shekhar Gupta’s column – What happened in Nepal will not happen here | शेखर गुप्ता का कॉलम: जो नेपाल में हुआ, वो हमारे यहां नहीं होगा

6 घंटे पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
नेपाल की राजधानी में जेन-जी के एक दिन के ही विरोध-प्रदर्शन में संवैधानिक रूप से निर्वाचित सरकार जिस तरह गिर गई, उसका पिछले तीन वर्षों में इस उपमहादेश में यह तीसरा उदाहरण है। इससे पहले श्रीलंका (कोलंबो, जुलाई 2022) और बांग्लादेश (ढाका, अगस्त 2024) में ऐसा हो चुका है।
हम सोशल मीडिया पर भी काफी कोलाहल देख रहे हैं। कहा जा रहा है, ‘सत्ता के आकांक्षी’ तत्व चाहते हैं कि भारत में भी ऐसा होना चाहिए। लेकिन हर सरकार जनता के विरोध के दबाव में गिर नहीं जाती। क्या आपको याद है कि 9 मई 2023 को पाकिस्तान में क्या हुआ था? तब इमरान खान के समर्थकों ने एक नहीं, कई शहरों में बलवा कर दिया था।
उन्होंने लाहौर के जिन्ना हाउस में कोर कमांडर के घर पर भी हमला कर दिया था। कोलंबो, ढाका या काठमांडू के मुकाबले वहां की स्थिति में ‘हुकूमत’ को उखाड़ फेंकने की संभावनाएं कहीं ज्यादा थीं। उस समय बदनामी झेल रही फौज की कठपुतली मानी गई असैनिक सरकार मुल्क के सबसे लोकप्रिय जननेता को जेल में बंद करने के कारण व्यापक नफरत झेल रही थी।
लेकिन वह ‘इंकलाब’ महज 48 घंटे में खत्म हो गया था। उसके नेता इमरान अभी भी जेल में बंद हैं और अब उन्हें 14 साल की जेल की सजा सुना दी गई है। वह गठजोड़ अभी भी सत्ता में कायम है, जिसे एक और चुनावी धांधली से नई जिंदगी दे दी गई है। और तमाम सामाजिक-आर्थिक तथा लोकतांत्रिक मांगें जस की तस बनी हुई हैं। 250 से ज्यादा विरोधी नेताओं के खिलाफ फौजी अदालतों में मुकदमे चल रहे हैं। और सरकार कहीं ज्यादा ताकतवर नजर आ रही है।
क्या पाकिस्तानी हुकूमत इसलिए सलामत रही, क्योंकि वह एक सख्त हुकूमत थी, जबकि श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल की सरकारें सख्त नहीं थीं? नहीं, पाकिस्तानी हुकूमत इसलिए सलामत रही, क्योंकि वह अभी भी क्रियाशील है। कानून-व्यवस्था किसी भी क्रियाशील देश की जान होती है।
यहां असली चीज सख्त या नरम होना नहीं, क्रियाशील होना है। कोई भी सत्ता तब तक क्रियाशील नहीं हो सकती, जब तक वह कानून-व्यवस्था बनाए रखने में सक्षम न हो। कानून-व्यवस्था बनी हो तो हुकूमत वैसे ढह नहीं जाती, जैसे कोलंबो, ढाका और अब काठमांडू में हुआ।
सत्ता-परिवर्तन एक लोकतांत्रिक आकांक्षा हो सकती है। लेकिन इसके लिए चंद दिनों के विरोध-प्रदर्शन, दंगे और आगजनी से ज्यादा कुछ चाहिए। राजनीतिक विकल्प खड़ा करने के लिए वर्षों नहीं तो महीनों की मेहनत और संघर्ष की जरूरत होती है।
जो क्रांति आप चाहते हैं उसके लिए जनता के बीच जाना पड़ता है, उसे चुनाव या जनांदोलन के बूते लाना पड़ता है। लेकिन काठमांडू में एक धक्के से ही जो पतन हुआ, वह हमें बताता है कि वहां की हुकूमत अक्रियाशील थी। वह निर्वाचित तो थी मगर उसके नेताओं में वह नहीं था, जो शासन चलाने की पहली शर्त होती है : लोकतांत्रिक धैर्य।
जवानी से लेकर मध्यवय तक गुरिल्ला लड़ाकों वाली ट्रेनिंग पाए नेपाली नेता दलबदल और बदलते गठजोड़ों के जरिए कुर्सी बदलने के संदिग्ध खेल में लगे रहे, निर्वाचित नेताओं के रूप में नाराज लोगों से निपटने का उन्हें कोई अनुभव नहीं था।
एक समय था जब माओवादी नेता बदलाव के नायकों के रूप में उभरे थे। लेकिन सत्ता में आने के बाद वे भूल गए कि लोग उनसे भी नाराज हो सकते हैं। और जब लोग नाराज हुए, तो उनका भरोसा जीतने और अपनी साख बनाने के लिए उनसे बात करने की जरूरत थी, उन पर बंदूक चलाने की नहीं।
2008 में राजशाही के खात्मे के बाद के 17 वर्षों में कभी उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थाओं को बनाने और उन्हें मजबूत करने का काम नहीं किया। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो इन संस्थाओं ने ही उनकी रक्षा की होती। विरोध-प्रदर्शन कर रही जनता ने अंत में जिस संस्था पर भरोसा किया वह अगर सेना है, तो यह क्रांतिकारी राजनीतिक तबके की भारी विफलता को ही उजागर करता है। उसने एक क्रियाशील हुकूमत का निर्माण नहीं किया।
एक सख्त हुकूमत काफी कमजोर भी हो सकती है। इस मामले में सबसे अहम उदाहरण सोवियत संघ के गणराज्य रहे जॉर्जिया का है। इतिहास में सोवियत संघ से सख्त हुकूमत का दूसरा कोई उदाहरण नहीं मिलता, लेकिन पहली बार जब 1988-89 में इसके खिलाफ विरोध जॉर्जिया में फूटा, तो वह घबरा गई।
उसने लाल सेना के साथ स्पेशल फोर्सेस और हथियारबंद केजीबी को वहां भेज दिया, जिन्होंने वहां गोलियों और जहरीली गैस की बारिश कर दी। लेकिन वह विफल रही। उसकी बदनाम पार्टी-हुकूमत की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई थी, वह असहमति से निपटना नहीं जानती थी।
आज जो विमर्श चल रहा है, वह विपक्ष की नामौजूदगी को सख्त हुकूमत के लिए जरूरी मानने की गलती कर रहा है, जबकि वास्तविकता इसके उलट है। विपक्ष तनाव को बाहर निकालने के वॉल्व के रूप में काम करता है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या कोर कमांडर के घरों को निशाना बनाने की जगह लोग विपक्ष के माध्यम से गुस्सा निकाल सकते हैं। जबकि हमारे पड़ोसी देशों ने विपक्ष को अलग-अलग पैमाने पर बहिष्कृत कर रखा है।
अंत में, आपको बताना चाहूंगा कि यह टिप्पणी किसने की थी कि “सत्ता-तंत्र में इतनी ताकत होनी चाहिए कि वह लोगों को एकजुट रख सके!’ 2010 में जब कश्मीर में आतंक चरम पर था, तब मुख्यधारा से कई आवाजें उभर रही थीं। कहा जा रहा था कि कश्मीर के लोग जब इतने असंतुष्ट हैं, तब उन्हें अलग क्यों न होने दिया जाए?
तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने उपरोक्त वाक्य एक बातचीत के दौरान कहा था। मुझे उम्मीद है, 15 साल पहले कही गई उनकी बात को याद करने के लिए वे मुझे माफ कर देंगे। लेकिन आज देखिए कि घाटी किस हाल में है। वैसे, उस समय वही यूपीए-2 सरकार थी, जिसके बारे में धारणा है कि वह नरम सरकार थी।
महज दंगे-फसाद से सत्ता परिवर्तन नहीं हो सकता… सत्ता-परिवर्तन एक लोकतांत्रिक आकांक्षा हो सकती है। लेकिन इसके लिए महज चंद दिनों के विरोध-प्रदर्शन, दंगे और आगजनी से ज्यादा कुछ करना होता है। राजनीतिक विकल्प खड़ा करने के लिए वर्षों नहीं तो महीनों की मेहनत और संघर्ष की जरूरत होती है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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